सुषमा नैथानी से जब पहली मुलाक़ात हुई थी तो वो विदेश में नौकरी कर रहीं और अपनी जड़ों के सवालों से मुखातिब होने की चिंता से घिरी जान पड़ती थीं. बस इतना ही. हम उनमें एक पहाड़ को समझने की इस कोशिश को कुछ हैरानी से देख रहे थे कि जब वो लोगों से कैमरे पर बातचीत रिकॉर्ड कर रही थीं. हमें ये मामला नोस्टालजिया जैसा लगता था या एक बौद्धिक फ़ितूर सा. लेकिन इसे फ़ितूर कहते हुए हम इसे खारिज नहीं कर रहे थे. हम बस सोच रहे थे कि आखिर ऐसा क्या है जो सुषमा नैथानी कैमरा लेकर और इतने सारे सवाल लेकर पहाड़ में घूम रही हैं. बहरहाल यही वो सिलसिला था जिसके तहत वो देहरादून में थीं. क्या वे लिखती भी हैं, कहानियां, हमारा ख़्याल ऐसा ही था, नाम कुछ सुना सा लगा था. लेकिन सुषमा ने तपाक से न कहने में देर नहीं की. एक पन्ना भी नहीं लिखा कभी. उनका जवाब था.
उस मुलाक़ात के क़रीब एक डेढ़ साल बाद मुझे उनका पहला कविता संग्रह हासिल हुआ. उड़ते हैं अबाबील. मानो हमारे उस पुराने सवाल का जवाब देता हुआ. अबाबील की तरह उड़कर आया हुआ. पहले कविता संग्रह में यूं तो कई बार कई क़िस्म की अनदेखियां रह जाती हैं और उसे एक कच्चेपन का संग्रह भी बता दिया जाता है लेकिन सुषमा की कविताएं बताती हैं कि संग्रह भले ही पहला है लेकिन इत्मीनान बहुत लंबा और गहरा है और ये फटाफट लिखी हुई कविताएं नहीं हैं. कविताओं की ध्वनियां शेड्स और रंगतें बताती हैं कि उनमें बारीकी से काम हुआ है और बहुत दिनों तक हुआ है. उनमें जो अलसपना है बेपरवाही सी ख़ुद से अलग कर कहीं किनारे रख देनी की जैसी वो उनके पुरानेपन के बारे में बताती है. जैसे गांवों में पेड़ों पर रखा बहुत दिनों का पुराल और धीरे धीरे निकाला जाता हुआ.
ज़ाहिर है ये काम किसी शिल्पकारी जैसी मुस्तैदी से नहीं बल्कि अभिव्यक्तियों पर देर तक सोचने उन्हें निखारने की धीरता रखने से हुआ है. ये काम साफ़गोई की वजह से हुआ है. इन कविताओं में शिल्प को लेकर जो चाहे बिंदु उठा लें लेकिन उनकी ईमानदारी, निश्छलता और पारदर्शिता और मासूमियत से आप अभिभूत हुए बिना नहीं रहेंगे. शायद सुषमा ने यही मासूमियत का शिल्प ही अर्जित कर लिया है. इसीलिए उनकी कविताएं कोलाहल नहीं है और न ही उनमें कोई बनीठनी ख़ामोशी है. उनमें कोई फ़लसफ़ाई नज़रिए नहीं हैं लेकिन उनमें आत्मिक सौंदर्य है. उनमें आत्मीय नैतिकता है. वे कविताएं ज़िद की हद तक नैतिक चेतना से भरी हैं. उनमें प्रेम करने की नैतिकता है, क्रुद्ध न होने की नैतिकता है, गांवों की स्मृतियों को बचाए रखने की नैतिकता है और अपनी भावुकताओं से एक मेहनत भरी दूरी रख पाने की नैतिकता है. अलगाव की ये नैतिक सामर्थ्य है जो सुषमा ने अपनी कविताओं में पाई है.
फिर उनके कविता विषयों को देखें. वे सुनियोजित नहीं हैं. उनमें बेपरवाही(फिर से) है और वे किसी फ़ॉर्मूले में नहीं अंटते. यही बातें उन्हें निश्छल बनाती हैं. बादलों के बारे में हों या बच्चों के बारे में या पहाड़ या किसी त्यौहार या प्रेम पर, वे अपने मन से अपने ढंग से आती हैं. उन्हें कविता की किसी शाला से नहीं लिया गया है. उनकी अपनी पगडंडी है. ये एक जोखिम भरा काम है लेकिन सुषमा ने इसे साधने में पूरी कोशिश की है.
"मन की मिट्टी में बची
रहेगी आद्रता...मैं फिर फिर निकलू्गी निर्भय अजनबी संसार की सड़क पर..."
सुषमा निर्भयता की कवि हैं. उन्हें किसी पैटर्न को फ़ॉलो करने का दबाव उन पर नज़र नहीं आता. कि ऐसा लिखेंगे तो क्या कहेंगे ऐसा सोचेगें तो क्या होगा. ये रचनात्मक निर्भयता है. अपनी जगह आप निर्मित करने की बेचैनी से निकली निर्भयता. इसीलिए सुषमा कविताओं में नापसंदगी की हद तक चेलैंज लेती हैं. उनमें निषिद्धताओं में आवाजाही है. वे शिल्प की परवाह नहीं करती. गढ़ी हुई कविता के बजाय वो घर चौखट के बाहर दख़ल के घेरे को काटती हुई कविता है. उसके पार जाने का साहस करती हुई. निषिद्ध ज्ञान का भागी होना चाहती हूं, अपनी एक कविता में सुषमा कहती हैं.
और यक़ीन. उनकी कविताओं को ख़ुद पर भरोसा है. यही कवि की एक बड़ी योग्यता है कि वो अपनी रचना पर भरोसा रखता हो या रचना उसमें भरोसे की जगह बनाए रखती हो.
"गंतव्य से पहले यात्रा
जानने से पहले जान लेने की उत्कंठा
समझदारी से पहले नासमझी भरे दौर
आरामदेह न भी हो, निरर्थक नहीं
नहीं होगा पहुंचना सरपट किसी ठौर
उलझेंगे बाएं दाएं, अंधेरे उजाले में
समय का कुछ हेरफेर होगा
कुछ दिल का फरेब
जगमग जुगनूं मिलेंगे गहिन रास्तों पर
भरी जलती दुपहरी मिलेगी कोई छांव भी..."
सुषमा की कविताएं इस माने में भी ताज़गी भरी हैं कि वे आस की लहलहाती फसल जैसी हैं. और उम्मीद ख़ुशी मन से जो एक इमोश्नली इंटेलिजेंट दूरी सुषमा ने बनाई है उसकी एक मिसाल है तीन तिरछे टेक नाम की कविता. जिसमें
उम्मीद
सर्द भोर की तारकोली सड़क पर जमी पारदर्शी ओस होगी
बस थोड़ी ही देर के लिएऔर
"ख़ुशी यूं ही दिखती है कभी सरपट भागती गिलहरी सी आड़ी तिरछी
फिर जा बैठती है पहुंच के पार
जाने किस पेड़ के कोठर में.."
और
"मन
बेरंग मोर होगा ज़रा देर ख़ुशी के बीच बौराया".
ये कविता सुषमा के काव्य शिल्प का बेहतरीन नमूना कही जा सकती है. जैसे कुछ इसी कविता के इर्दगिर्द उनका काव्य व्यक्तित्व बन रहा है या बना है. चुप्पी उदासी और न जाने कितना कुछ कहने की बेकली को समेटे हुए. और इसमें एक अनिवार्य जटिलता भी है. कविता का समूचा कम्पोज़िशन बाहर से जितना सरल सा नज़र आता है उतना ही वो दुरूह है. उनकी कविता के दरवाजे खिड़कियां आसानी से नहीं खुलते जबकि हम समझते हैं वे खुले ही रहे होंगे. पाठक की आवाजाही को सहज कराती ये कविताएं असल में इतनी मल्टीलेयर्ड हैं कि आखिर में हम एक बहुत बड़ी वीरानी में दाखिल हो सकते हैं. जैसे नक्शे के बाहर के एक गांव में चले जाना.
"आसमान से होड़ करती ऊंचाई पर
बित्तेभर जगह में
जंगली बकरी सी चढ़ती उतरती हैं औरतें
जुटाती जाती जीवन संसाधन
अब तक पहुंचती हैं दुलहिनें
डोले में बैठ एक छोर से दूसरी ओर
और बहुत सी बहुएं झूल जाती रहीं किसी ठूंठ पर
जीवन की अदम्य चाहना और दुख के बीच उपजे
हर ठूंठ पेड़ पणधार के गीत हैं..."
******************