Sunday, August 12, 2012

निषिद्ध ज्ञान का भागी होने की निर्भयताः सुषमा नैथानी की कविताएं -शिवप्रसाद जोशी


सुषमा नैथानी से जब पहली मुलाक़ात हुई थी तो वो विदेश में नौकरी कर रहीं और अपनी जड़ों के सवालों से मुखातिब होने की चिंता से घिरी जान पड़ती थीं. बस इतना ही. हम उनमें एक पहाड़ को समझने की इस कोशिश को कुछ हैरानी से देख रहे थे कि जब वो लोगों से कैमरे पर बातचीत रिकॉर्ड कर रही थीं. हमें ये मामला नोस्टालजिया जैसा लगता था या एक बौद्धिक फ़ितूर सा. लेकिन इसे फ़ितूर कहते हुए हम इसे खारिज नहीं कर रहे थे. हम बस सोच रहे थे कि आखिर ऐसा क्या है जो सुषमा नैथानी कैमरा लेकर और इतने सारे सवाल लेकर पहाड़ में घूम रही हैं. बहरहाल यही वो सिलसिला था जिसके तहत वो देहरादून में थीं. क्या वे लिखती भी हैं, कहानियां, हमारा ख़्याल ऐसा ही था, नाम कुछ सुना सा लगा था. लेकिन सुषमा ने तपाक से न कहने में देर नहीं की. एक पन्ना भी नहीं लिखा कभी. उनका जवाब था.

उस मुलाक़ात के क़रीब एक डेढ़ साल बाद मुझे उनका पहला कविता संग्रह हासिल हुआ. उड़ते हैं अबाबील. मानो हमारे उस पुराने सवाल का जवाब देता हुआ. अबाबील की तरह उड़कर आया हुआ. पहले कविता संग्रह में यूं तो कई बार कई क़िस्म की अनदेखियां रह जाती हैं और उसे एक कच्चेपन का संग्रह भी बता दिया जाता है लेकिन सुषमा की कविताएं बताती हैं कि संग्रह भले ही पहला है लेकिन इत्मीनान बहुत लंबा और गहरा है और ये फटाफट लिखी हुई कविताएं नहीं हैं. कविताओं की ध्वनियां शेड्स और रंगतें बताती हैं कि उनमें बारीकी से काम हुआ है और बहुत दिनों तक हुआ है. उनमें जो अलसपना है बेपरवाही सी ख़ुद से अलग कर कहीं किनारे रख देनी की जैसी वो उनके पुरानेपन के बारे में बताती है. जैसे गांवों में पेड़ों पर रखा बहुत दिनों का पुराल और धीरे धीरे निकाला जाता हुआ.

ज़ाहिर है ये काम किसी शिल्पकारी जैसी मुस्तैदी से नहीं बल्कि अभिव्यक्तियों पर देर तक सोचने उन्हें निखारने की धीरता रखने से हुआ है. ये काम साफ़गोई की वजह से हुआ है. इन कविताओं में शिल्प को लेकर जो चाहे बिंदु उठा लें लेकिन उनकी ईमानदारी, निश्छलता और पारदर्शिता और मासूमियत से आप अभिभूत हुए बिना नहीं रहेंगे. शायद सुषमा ने यही मासूमियत का शिल्प ही अर्जित कर लिया है. इसीलिए उनकी कविताएं कोलाहल नहीं है और न ही उनमें कोई बनीठनी ख़ामोशी है. उनमें कोई फ़लसफ़ाई नज़रिए नहीं हैं लेकिन उनमें आत्मिक सौंदर्य है. उनमें आत्मीय नैतिकता है. वे कविताएं ज़िद की हद तक नैतिक चेतना से भरी हैं. उनमें प्रेम करने की नैतिकता है, क्रुद्ध न होने की नैतिकता है, गांवों की स्मृतियों को बचाए रखने की नैतिकता है और अपनी भावुकताओं से एक मेहनत भरी दूरी रख पाने की नैतिकता है. अलगाव की ये नैतिक सामर्थ्य है जो सुषमा ने अपनी कविताओं में पाई है.

फिर उनके कविता विषयों को देखें. वे सुनियोजित नहीं हैं. उनमें बेपरवाही(फिर से) है और वे किसी फ़ॉर्मूले में नहीं अंटते. यही बातें उन्हें निश्छल बनाती हैं. बादलों के बारे में हों या बच्चों के बारे में या पहाड़ या किसी त्यौहार या प्रेम पर, वे अपने मन से अपने ढंग से आती हैं. उन्हें कविता की किसी शाला से नहीं लिया गया है. उनकी अपनी पगडंडी है. ये एक जोखिम भरा काम है लेकिन सुषमा ने इसे साधने में पूरी कोशिश की है. 

"मन की मिट्टी में बची रहेगी आद्रता...मैं फिर फिर निकलू्गी निर्भय अजनबी संसार की सड़क पर..."

सुषमा निर्भयता की कवि हैं. उन्हें किसी पैटर्न को फ़ॉलो करने का दबाव उन पर नज़र नहीं आता. कि ऐसा लिखेंगे तो क्या कहेंगे ऐसा सोचेगें तो क्या होगा. ये रचनात्मक निर्भयता है. अपनी जगह आप निर्मित करने की बेचैनी से निकली निर्भयता. इसीलिए सुषमा कविताओं में नापसंदगी की हद तक चेलैंज लेती हैं. उनमें निषिद्धताओं में आवाजाही है. वे शिल्प की परवाह नहीं करती. गढ़ी हुई कविता के बजाय वो घर चौखट के बाहर दख़ल के घेरे को काटती हुई कविता है. उसके पार जाने का साहस करती हुई. निषिद्ध ज्ञान का भागी होना चाहती हूं, अपनी एक कविता में सुषमा कहती हैं.
और यक़ीन. उनकी कविताओं को ख़ुद पर भरोसा है. यही कवि की एक बड़ी योग्यता है कि वो अपनी रचना पर भरोसा रखता हो या रचना उसमें भरोसे की जगह बनाए रखती हो.

"गंतव्य से पहले यात्रा
जानने से पहले जान लेने की उत्कंठा
समझदारी से पहले नासमझी भरे दौर
आरामदेह न भी हो, निरर्थक नहीं
नहीं होगा पहुंचना सरपट किसी ठौर
उलझेंगे बाएं दाएं, अंधेरे उजाले में
समय का कुछ हेरफेर होगा
कुछ दिल का फरेब
जगमग जुगनूं मिलेंगे गहिन रास्तों पर
भरी जलती दुपहरी मिलेगी कोई छांव भी..."


सुषमा की कविताएं इस माने में भी ताज़गी भरी हैं कि वे आस की लहलहाती फसल जैसी हैं. और उम्मीद ख़ुशी मन से जो एक इमोश्नली इंटेलिजेंट दूरी सुषमा ने बनाई है उसकी एक मिसाल है तीन तिरछे टेक नाम की कविता. जिसमें

उम्मीद  
सर्द भोर की तारकोली सड़क पर जमी पारदर्शी ओस होगी
बस थोड़ी ही देर के लिए
और
"ख़ुशी यूं ही दिखती है कभी सरपट भागती गिलहरी सी आड़ी तिरछी 
फिर जा बैठती है पहुंच के पार
जाने किस पेड़ के कोठर में.."

और
"मन  
बेरंग मोर होगा ज़रा देर ख़ुशी के बीच बौराया".

ये कविता सुषमा के काव्य शिल्प का बेहतरीन नमूना कही जा सकती है. जैसे कुछ इसी कविता के इर्दगिर्द उनका काव्य व्यक्तित्व बन रहा है या बना है. चुप्पी उदासी और न जाने कितना कुछ कहने की बेकली को समेटे हुए. और इसमें एक अनिवार्य जटिलता भी है. कविता का समूचा कम्पोज़िशन बाहर से जितना सरल सा नज़र आता है उतना ही वो दुरूह है. उनकी कविता के दरवाजे खिड़कियां आसानी से नहीं खुलते जबकि हम समझते हैं वे खुले ही रहे होंगे. पाठक की आवाजाही को सहज कराती ये कविताएं असल में इतनी मल्टीलेयर्ड हैं कि आखिर में हम एक बहुत बड़ी वीरानी में दाखिल हो सकते हैं. जैसे नक्शे के बाहर के एक गांव में चले जाना.

"आसमान से होड़ करती ऊंचाई पर
बित्तेभर जगह में
जंगली बकरी सी चढ़ती उतरती हैं औरतें
जुटाती जाती जीवन संसाधन 

अब तक पहुंचती हैं दुलहिनें
डोले में बैठ एक छोर से दूसरी ओर
और बहुत सी बहुएं झूल जाती रहीं किसी ठूंठ पर
जीवन की अदम्य चाहना और दुख के बीच उपजे
हर ठूंठ पेड़ पणधार के गीत हैं..."


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Tuesday, February 21, 2012

डा. विद्या सागर नौटियाल जी को श्रदांजलि

खबर मिली  आज डा.  विद्या सागर नौटियाल नहीं   रहे. ७९ वर्ष की आयु में बैंगलोर में उनका देहांत हो गया.  डा. विद्या सागर नौटियाल जी का नाम कई सालों अलग अलग सन्दर्भों में सुनती रही. ०१० में मालूम हुआ डा. विद्या सागर नौटियाल देहरादून में रहते है, अगस्त में जब अपने माता-पिता के घर आयी तो उन्हें एक छोटी सी इमेल उन्हें लिखी कि "आपसे मिलने के लिए मुनासिब समय/दिन  क्या हो सकता है?"  उनका अविलम्ब ज़बाब आया, "प्रिय  सुषमाजी,  मैं  आजकल  एंजियोप्लास्टी के  बाद  घर  पर  आराम  कर  रहा   हूँ. आप  फ़ोन  से  अपनी  सुविधा  का  समय  निश्चित  कर  सकती हैं". अगस्त में जब घर पहुंची तो उनसे मिलना भी हुआ. उन्हें आराम की सख्त हिदायत थी, फिर भी तीन दफे उन्होंने मिलने का समय दिया, बातचीत लगभग ३-४ घंटे की रेकॉर्ड की.   ७७  साल की उम्र में बेहद कमज़ोर शरीर, बहुत क्षीण आवाज़, और बेहद चौकन्ना मस्तिष्क, सरल ह्रदय,  और बेहद सरल जीवन जीते हुए नौटियाल जी, मेरी कल्पना से भी बाहर. इन सब के बीच एक तपा हुया अनुशासन का जीवन, लगातार कंप्यूटर की खटर-पटर, उनके पास बहुत कम समय है, इस बात का इल्म, उन्हें अभी बहुत सी बातें पब्लिक डोमेन में छोड़कर जानी है.  
उनसे मिलना ही बेशक इस पूरी यात्रा का  सबसे बड़ा सबब बना. उनसे मिलने से पहले उनकी किताब, "सुरज सबका है" पढी. कई सालों से सुने लोकगीत "बीरू-भड़ू क देश, बावन गढ़ु क देश" का कुछ मतलब इसी किताब से मिला, "गोर्ख्याणी " के पुराने भूले किस्से समय के नक़्शे में फिर कहीं अपनी जगह पाए. फिर तीस साल पहले अपने बचपन के दिनों में भी लौटे, अंगीठी को तापते अपने दादा जी से सुने किस्सों कहानियों की साँझ-और रातों में लौटे.  कुछ किताबें साथ लायी, जिन चार किताबों की प्रति बाज़ार में नहीं थी, उन्हें नौटियाल जी से लेकर इस बीच पढ़ा.  वापस लौटने पर  उनकी इमेल मिली.
"प्रिय  सुषमा  जी, मैं  तो  आपका  अपने  घर  पर  एक  मर्तबा  फिर  से  आने  का  इंतज़ार  कर  रहा  था. इधर  हम  लगातार  बरसते   पानी  से  परेशां  हैं. यह  भी  एक  यादगार  वर्षा  साबित  होगी. आपने  अपनी  पहाड़-यात्राओं  में  जो  नए  अनुभव  हासिल  किये, कृपया  उनको  तत्काल  लिख  डालिए. बाद  में  डीटेल्स याद  नहीं  रहते. उस  दिन  मैंने  गिरदा कि  जीवन-शैली की  बात  शुरू  की  थी. आपने  बताया  था  की  आपने  उनकी  पत्नी  से  बातें  की  हैं . लेकिन  गिरदा  उसके  दो-तीन   ही  दिन  बाद  हमें  छोड़  कर  विदा  हो  गए. मैं  हतप्रभ  हूँ.  पहाड़  क्या, इस  देश  के  अन्दर  अब  कोई  ऐसी  शख्सियत  कभी  जन्म  नहीं  लेगी. वे  जिस  युग  के  अनुभवों  को  साथ  लिए  चलते  थे, वे  दिन  ही  कभी  वापिस  नहीं  आने  वाले  हैं. हम  सबको  आपकी  नई भारत यात्रा  की  प्रतीक्षा  रहेगी".--------विद्या  सागर  
लगभग कुल ज़मा यही तीन स्नेहभरी मुलाकातें हैं. बीच बीच में डेढ़ साल तक उनसे इमेल पर बातचीत होती रही, देहरादून के दुसरे दोस्तों से उनकी खैरियत की पूछताछ भी. आस थी कि अभी कुछ और मुलाकातें उनसे होंगी, क्या पता था २०१० से जिस तरह से हम गिरदा को बिसूरते रहे, दो साल बाद नौटियाल जी भी याद में ही रह जायेंगे.
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डा. विद्या सागर नौटियाल का इस वर्ष १२  फरवरी को ७९ वर्ष की आयु में देहांत हो गया.  बेहद चौकन्ना मस्तिष्क, सरल ह्रदय, दुबले पतले नौटियाल जी  ६५ वर्ष से ज्यादा वामपंथी राजनीती में सक्रिय रहे और पहाड़ की जमीन , जीवन अनुभवों, और लोगों के साथ गहरे जुड़ाव से उपजी उनकी कहानियां पहाड़ के कठिन जीवन की  प्रमाणिक  झलक है. विद्या सागर इस मायने में विलक्षण साहित्यकार थे कि लम्बे राजनीतिक जीवन के बावजूद उनके साहित्य में राजनैतिक  नारेबाजी  नहीं है, लेकिन जन की पीड़ा के गहरे चित्र, बंधी नैतिकता को मानवीय आधार पर चुनौती, और  जीवन अनुभवों  से उनका साहित्य समृद्ध  है.  अपनी जड़- और जमीन से उपजा साहित्य है, किसी अमूर्त दुनिया में इसका सृजन नही हुआ.  उनके ही अनुसार 
"अपने लोगों की यह कथा जिसे अनेक वर्षों तक मैंने अपने भीतर जिया है, अपने को अपने समाज का ऋणी  मानते हुए उससे उऋण होने की छटपटाहट में लिखता हूँ, साहित्य मेरे लिए मौज मस्ती का साधन नहीं , जिन्दगी की ज़रुरत है. लेखन के काम को में एक फ़र्ज़ की तरह अंजाम देता हूँ. किसी प्रकार की हडबडी के बगैर लिखता हूँ, और किसी की फ़रमईश पर नहीं लिखता. जो मन में आये वो लिखता हूँ. सिर्फ वही लिखता हूँ". 

बचपन और विद्यार्थी जीवन
 20 सितंबर 1933 को टिहरी के मालीदेवल गांव में राजगुरु कुल में  विद्या सागर जी का जन्म हुआ. उनके पिता नारायण दत्त नौटियाल वन विभाग में अधिकारी थे व माँ रत्ना सावली गाँव के भट्ट परिवार से थी. उनका बचपन टिहरी रियासत के घनघोर जंगलों के बीच बीता, और ११-१२ साल की उम्र में प्रताप इंटर कोलेज में पढने के लिए टिहरी शहर आ गए.  इसी कच्ची  उम्र में  राजनीती और लिखने -पढने की उनके जीवन में साथ साथ पैठ बननी शुरू हुयी. इन्हीं दिनों वो शंकर दत्त डोभाल के संपर्क में आये और रियासत के भीतर राजशाही के खिलाफ चले प्रजामंडल आन्दोलन में हिस्सा लेने लगे, "श्रीमन जी" के साथ गाँव-गाँव पैदल यात्रा करने का मौका मिला, और नागेन्द्र सकलानी जैसे नेताओं का असर पड़ा. इसी उम्र में एक कविता संग्रह उन्होंने तैयार किया था, जो कभी छपा नहीं, और गुम हो गया था.  जल्द ही भारत आज़ाद हो गया परन्तु टिहरी की जनता को राज शाही से मुक्ति नही मिली. रियासत की जनता प्रजामंडल की अगुआई में सम्पूर्ण भारत की आजादी की तरह टिहरी के भीतर भी आजादी की मांग को लेकर आन्दोलन और धरने पर बैठ गयी. १७ अगस्त १९४७ को राजशाही के खिलाफ धरने में शामिल होने के कारण सिर्फ 13 साल की उम्र में उन्हें राजद्रोह के आरोप में जेल भेजा गया.  हाईस्कूल के बाद  विद्या सागर टिहरी रियासत से बाहर निकल आये और आगे की पढ़ाई क्रमश: देहरादून और काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से की, जहां उनकी सक्रियता वामपंथी छात्र आन्दोलन में रही . बनारस में उन्हें पी. सी. जोशी, मोहन उप्रेती, नईमा उप्रेती,  रुस्तम सैटिन, जैसे राजनैतिक साथी मिले, बाबा  नागार्जुन, नामवर सिंह, केदार नाथ सिंह आदि साहित्य धर्मी मित्र मिले. बीएचयू में अंग्रेजी साहित्य से एम. ए.  के दौरान आंदोलन में सक्रियता के चलते उन्हें विश्वविद्यालय से निष्कासित किया गया. १९५३  व १९५७  में बीएचयू छात्र संसद के "प्रधानमंत्री" (अध्यक्ष के लिए शायद यही शब्द था)  और  १९५८  में अविभाजित कम्युनिस्ट पार्टी के छात्र संगठन एआईएसएफ के  राष्ट्रीय अध्यक्ष चुने गए.  इसी वर्ष उन्होंने वियना में हुए अंतर्राष्ट्रीय युवा सम्मेलन में भारतीय प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व किया. 
छात्र जीवन में ही १९५३-५४ में उनकी कहानी ‘भैंस का कट्या’, "मेरा जीवन एक खुली किताब है "  और "मूक बलिदान’" छपीं. कहानी लिखने के शुरुआत दिनों  में वे यशपाल से प्रेरित रहे. 

 टिहरी वापसी, देशभक्तों की कैद में , विधायक 
 १९५९ में वापस टिहरी आने के बाद नौटियाल जी कम्युनिस्ट पार्टी के पूर्णकालिक कार्यकर्ता बन गए  और अगले कई वर्षों तक उन्होंने कहानियाँ नही लिखीं, एक तरह से साहित्य से वनवास ले लिया और आदमी नामक जीव और अपने आस-पास के जीवन को पढ़ते रहे. टिहरी  में नये  सिरे से संगठन की शुरुआत की और दो वर्षों तक गुणानंद पथिक और दलेब सिंह असवाल के साथ हाथ में लाल झंडा लिए टिहरी, उत्तरकाशी और चमोली के गाँव गाँव में घूमते रहे. टिहरी में इस बीच राजशाही ख़त्म हुयी और भारत चीन युद्ध शुरू हो गया और बहुत से वामपंथी नेताओं के साथ विद्यासागर जी को भी २२ महीने के लिए जेल भेज दिया गया. अपनी गिरिफ्तारी के समय वो चीन-भारत विवाद से उत्पन्न परिस्थिति में सुरक्षा कार्यों में जन सहयोग संगठित करने के लिए टिहरी में  प्रचार कर रहे थे. उन दिनों की याद में उन्होंने लिखा है.
"चीन ने भारत पर हमला किया था, कम्युनिस्ट पार्टी का कार्यकर्ता होने के कारण हमें चीन समर्थक मान लिया गया था, और जेल में बंद कर दिया गया था. भारत सुरक्षा अधिनियम में  बगैर कारण  बताये, बगैर मुकदमा चलाये, बंद करने का अधिकार सरकार को मिल गया था". 
बरेली की जेल में उनके साथ मोहन उप्रेती और चन्द्र सिंह गढ़वाली भी थे. उन दिनों के संस्मरण उन्होंने "देशभक्तों की कैद" नाम से लिखे है, और कुछ वाकये  उनकी संस्मरण पर आधारित  "मोहन गाता जाएगा" (२००४, राधाकृष्ण प्रकाशन) में हैं.  इस किताब को पढने के बाद उनकी दूसरी रचनाएँ और जीवन के साथ उनके अंतर्संबंध की भी कुछ झलक मिली. बहुत  मीठेपन से  नौटियाल जी ने उन दिनों के जेल वाले  करिश्माई मोहन उप्रेती को याद किया है, जेल के भीतर उनकी गायकी की रंगत, कैदियों के बीच नृत्य नाटिका का आयोजन, और जेल प्रशासन को किस तरह उप्रेती जी ने अपना मुरीद बना डाला.   बाद के वर्षों में उन्होंने वकालत की पढ़ाई की, साहित्य में पी.एच डी.  भी की.  लम्बे समय तक सबसे गरीब लोगों का कानूनी और राजनीतिक प्रतिनिधित्व करते रहे. वन आंदोलन, चिपको आंदोलन के साथ वे टिहरी बांध विरोधी आंदोलन में भी जनता के पक्ष में लड़ते रहे और  1980 में देवप्रयाग से उत्तर प्रदेश विधानसभा के सदस्य चुने गए. शायद भारत के लोकतंत्र के इतिहास में वो अकेले जननेता होंगे जिन्होंने महीनों महीनों दूर दराज़ के क्षेत्रों की लम्बी पैदल यात्राएं की, लोगो की बात सुनीं  और जितना भी संभव हुया उनकी बात आगे रखी, और एक मामूली दो कमरे के घर में अपना पारिवारिक जीवन बिताया.   
टिहरी की जमीन से बेदख़ल और तीस वर्ष बाद साहित्य में  वापसी 
टिहरी बाँध की परियोजना में अपनी घर जमीन से नौटियाल जी भी बेदखल हुए और देहरादून बसे. परन्तु उनका सिर्फ भोगोलिक विस्थापन ही हुआ, ये साहित्य के ज़रिये टिहरी वापस लौटना और उस डूबी जमीन पर शेष जीवन खड़े रहने की शुरुआत थी.  ३० वर्षों बाद १९८४ में  "टिहरी की कहानियां" राजकमल प्रकाशन से छपीं और ६० साल की उम्र में फिर उन्होंने साहित्य की तरफ रुख किया.  जीवन के आखिरी दो दशकों में उनकी दस से अधिक किताबें प्रकाशित हुईं. जिनमें "भीम अकेला", "सूरज सबका है", "सरोज का सन्निपात", "उत्तर बायाँ है",  "स्वर्ग दद्दा पाणि पाणि", "फट जा पंचधार", "यमुना के बाग़ी बेटे",  "मेरी कथा यात्रा " और "मोहन गाता जाएगा"  प्रमुख है.  अपने साहित्य में नौटियाल जी कभी टिहरी के बाहर नही गए, विश्व बंधुत्व की उदारता और राजनीती में अंतर रास्ट्रीयता के हिमायती होने के बावजूद उनके रचना की भूमी यही रही, जिसे वो बहुत गहरे पहचानते थे, जिसे पैदल वर्षों तक उन्होंने नापा था, जिनके भीतर रहने वाले लाखों लोगों के सुख दुःख और सपनों के वे भागीदार थे.
"पहाड़ दरअसल वैसा नहीं है, जैसा वह दो  घड़ियों के अपने जीवन को पहाड़ पर बिताने वाले सैलानियों को दिखाई देता है.  पूर्णमासी का, शरद का चाँद घने जंगल में अपनी रोशनी डालता है तो उसकी झलक मात्र से जीवन धन्य लगता है.  सूरज, नदियां, घाटियां और इन पहाड़ों में बसने वाले लोग, ये सब शक्ति देते हैं.  उच्च शिखरों पर बुग्यालों के रंगीन कालीन के ऊपर बैठकर एक क्षण के लिए सूर्य की किरणों के दर्शन जीवन को सार्थक करने लगते हैं. लेकिन इन पहाड़ों में भीतर जीवन विकट है.  याद रखना चाहिए कि इस हिमालय में पांडव भी गलने आए थे.  मैं इस विकट पहाड़ में रम-बस गया.  इसे छोड़कर कहीं बाहर भाग जाने की बात नहीं सोची.  अपनी रचनाओं में मैं इस पहाड़ की सीमाओं के अंदर घिरा रहा.  टिहरी के बाहर नहीं निकला. निकलूंगा भी नहीं". 
उनकी किताबें पढतें हुए अजब खुशी से मन भरता है, हिम्मत से भी... एक जीवन इतना समृद्ध, इतना सरल और रचनाधर्मिता से लाबाबब. बिना औपचारिकता के, बिना दिखावे के, बिना साज सामान, जैसे किसी फालतू चीज़ की उसमें जगह नहीं. जीवन जिसने बहुत बहुत समाज को दिया, लिया बहुत बहुत कम...
 (*लेख में अधिकतर तथ्य नौटियाल जी की आत्मकथा "मोहन गाता जाएगा" और उनसे की गयी मेरी  रेकॉर्डेड बातचीत पर आधारित है).
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नौटियाल जी को याद करते हुए नवीन जी ने  यहाँ और और शिव प्रसाद जोशी जी ने  यहाँ लिखा है, पल्लव कुमार से बातचीत यहाँ है. अब उन्हें कुछ जानना उन्हें जानने वालों के मार्फ़त भी जानना होगा. शिव जोशी की नौटियाल जी से बातचीत हिलवाणी में सुनी जा सकती है.