Tuesday, December 8, 2009

वीरेन डंगवाल के स्याही ताल से एक खुबसूरत कविता

गंगा स्तवन - वीरेन डंगवाल
(लीलाधर जगूड़ी, मंगलेश डबराल और सुंदरचंद ठाकुर के साथ, हरसिल-गंगोत्री के रस्ते पर)
यह वन में नाचती एक किशोरी का एकांत उल्लास है
अपनी ही देह का कौतुक और भय
वह जो झरने बहे चले आ रहे हैं
हज़ारों-हज़ार
हर क़दम उलझते-पुलझते कूदते-फाँदते
लिए अपने साथ अपने-अपने इलाक़े की
वनस्पतियों का रस और खनिज तत्व
दरअसल उन्होंने ने ही बनाया है इसे
देवापगा गंग महरानी!
***
गंगा के जल में बनती है
हरसिल इलाक़े की कच्ची शराब
घुमन्तू भोटियों ने खोल लिए हैं क़स्बे में खोखे
जिनमें वे बेचते हैं
दालें-सुईधागा-प्याज-छतरियाँ-पौलीथीन
वग़ैरह
निर्विकार चालाकी के साथ ऊन कातते हुए

दिल्ली का तस्कर घूम रहा है
इलाक़े में अपनी लम्बी गाड़ी पर
साथ बैठाले एक ग्रामकन्या और उसके शराबी बाप को
इधर फोकट में मिल जाए अंगरेजी का अद्धा
तो उस अभागे पूर्व सैनिक को
और क्या चाहिए !
***
इस तरह चीखती हुई बहती है
हिमवान की गलती हुई देह
लापरवाही से चिप्स का फटा हुआ पैकेट फेंकता वह
आधुनिक यात्री
कहाँ पहचान पाएगा वह
ख़ुद को नेस्तनाबूद कर देने की उस महान यातना को
जो एक अभिलाषा भी है
कठोर शिशिर के लिए तैयार हो रहे हैं गाँव
विरल पत्र पेड़ों पर चारे के लिए बाँधे जा चुके
सूखी हुई घास और भूसे के
लूटे-परखुंडे
घरों में सहेजी जा चुकी
सुखाई गई मूलियाँ और उग्गल की पत्तियाँ
***
मुखबा में हिचकियाँ लेती-सी दिखती है
अतिशीतल हरे जल वाली गंगा
बादलों की ओट हो चला गोमुख का चितकबरा शिखर
जा बेटी, जा, वहीं अब तेरा घर होना है
मरने तक
चमड़े का रस मिले उसको भी पी लेना
गाद-कीच-तेल-तेज़ाबी रंग सभी पी लेना
ढो लेना जो लाशें मिलें सड़ती हुई
देखना वे ढोंग के महोत्सव
सरल मन जिन्हें आबाद करते हैं अपने प्यार से
बहती जाना शांत चित्त सहलाते-दुलराते
वक्ष पर आ बैठे जल पाँखियों की पाँत को।

Thursday, December 3, 2009

रानीखेत से हिमालय: शिरीष कुमार मौर्य


शिरीष के नए कविता संग्रह "पृथ्वी पर एक जगह" कुछ महीनो पहले
शिल्पायन प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है। कुछ बेहतर कविताएं उनके ब्लॉग अनुनाद
पर भी पढी जा सकती है. इसी किताब में हिमालय के ऊपर एक बेहद सहज शब्दावली में बेटे से बातचीत के जरिये हिमालय को समझने की एक कवि की कोशिश है, जिसमे विज्ञान का भी मिथक की तरह इस्तेमाल है। फैक्ट्स, मिथक और जड़ो से जुड़ाव के संयोजन से निकली ये कविता शायद शिरीष के बस की ही है, इतने सरल शब्दों में कह देना। (किताब के लिए संपर्क का पता है :10295, lane #1, West Gorakhpark, Shahdara, Delhi-110032, Phone;9810101036/011-22821174).

(बेटे से कुछ बात)

वे जो दिखते हैं शिखर
नंदाघुंटी -पंचाचूली-नंदादेवी-
त्रिशूल वगैरह
उन पर धूल राख और पानी नहीं
सिर्फ बर्फ गिरती है

अपनी गरिमा में निश्छल सोये-से
वे बहुत बड़े और शांत
दिखते हैं

हमेशा ही बर्फ नहीं गिरती थी
उन पर
एक समय था जब वे थे ही नहीं
जबकि
बहुत कठिन है उनके होने की कल्पना
अक्षांशों और देशांतरों से भरी
इस दुनिया में

कभी वहां
समुद्र था नमक और मछलियों और एक छूंछे उत्साह से भरा
वहां समुद्र था
और बहुत दूर थी धरती
पक्षी जाते थे कुछ साहसी इस ओर से उस ओर
अपना प्रजनन-चक्र चलाने
समुद्र उन्हें रोक नहीं पाता

फिर एक दौर आया
जब दोनों तरफ की धरती ने
आपस में मिलने का फैसला किया
समुद्र इस फैसले के खिलाफ था
वह उबलने लगा
उसके भीतर कुछ ज्वालामुखी फूटे
उसने पूरा प्रतिरोध किया
धरती पर दूर-दूर तक जा पहुंचा लावा
लेकिन
यह धरती का फैसला था
इस पृथ्वी पर दो-तिहाई होकर भी रोक नहीं सकता था
जिसे समुद्र
आखिर वह भी तो एक छुपी हुई धरती पर था

धरती में भी छुपी हुई कई परतें थीं
प्रेम करते हुए हृदय की तरह
वे हिलने लगीं
दूसरी तरफ़ की धरती की परतों से
भीतर-भीतर मिलने लगीं
उनके हृदय मिलकर बहुत ऊचे उठे
इस तरह हमारे ये विशाल और अनूठे
पहाड़ बने

यह सिर्फ भूगोल या भूगर्भ-विज्ञान है
या कुछ और ?

जब धरती अलग होने का फैसला करती है
तो खाइयां बनती हैं
और जब मिलने का तब बनते हैं पहाड़

बिना किसी से मिले
यों ही इतना ऊचा नहीं उठ सकता कोई
जब ये बने
इन पर भी राख गिरी ज्वालामुखियों की
छाये रहे धूल के बादल
सैकड़ों बरस

फिर गिरा पानी
एक लगातार अनथक बरसात
एक प्रागैतिहासिक धीरज के साथ
ये ठंडे हुए

आज जो चमकते दीखते हैं
उन्होंने भी भोगे हैं
प्रतिशोध
भीतर-भीतर खौले हैं
बर्फ सा जमा हुआ उन पर
युगों का अवसाद है

पक्षी अब भी जाते हैं यहां से वहां
फर्क सिर्फ इतना है
पहले अछोर समुद्र था बीच में
अब
रोककर सहारा देते
पहाड़ हैं!


Wednesday, August 26, 2009

इस हफ्ते का सवाल

WHAT IS THE FOLLOWING?

SHAKUNADE SHAKUNADE KAZAYE, AATI NIIKA SHAKUNAM BOLYA DAINA, BAZAN SHANKH......

Monday, August 10, 2009

कुछ तस्वीरे हवाई की

हवाई मे बीत १० दिनों के बारे मे लिखने का मन है। कई चीजे एक साथ थी, अमेरिकन सोसाइटी ऑफ़ प्लांट बायोलोजी की मीटिंग मे अचानक जे सी बोस पर एक पोस्टर, पुराने दोस्तों, सहपाठियों से मुलाक़ात, और खासकर उनके बच्चों से, और बालकोनी से झांकता समंदर, और कई चीजों के घालमेल मे डूबे १० दिन। फिलहाल कुछ तस्वीरे.



Tuesday, July 14, 2009

Fellowships

I found following sites, which may be useful for the students, academicians in the country.

1. http://www.scholarshipsinindia.com/awards_competitions_in_india.html

2. http://www.ucost.in/sciencecongress.html

best wishes, Prem

Monday, May 11, 2009

पंडित छन्नूलाल मिश्र के दिव्य स्वर में दिगंबर होली




भाई प्रेम ने पंडित छन्नूलाल मिश्र की दिगंबर होली का ज़िक्र किया तो मैंने 'रेडियोवाणी' पर इसके आडियो का लिंक टिप्पणी में दे दिया , स्वप्नदर्शी का सुझाव है कि मैं आडियो यहीं क्यों न लगा दूँ। इन दोनो मित्रों के सानिध्य में इस तीसरे नैनीताली को आलसीपने के लगभग स्थायी भाव को त्यागना ही पड़ा. तो आइए सुनते है पंडित छन्नूलाल मिश्र के दिव्य स्वर में दिगंबर होली...

होली (शिव जी की)

ये होली पंडित मिश्रा के स्वर में सुनी थी बहुत साल पहले, सीधे बनारस से लाइव:
पेश है:
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खेलैं मसाने में होरी दिगंबर खेले मसाने में होरी
भूत पिशाच बटोरी दिगंबर, खेले मसाने में होरी.
लखि सुंदर फागुनी छटा के, मन से रंग-गुलाल हटा के,
चिता, भस् भर झोरी दिगंबर, खेले मसाने में होरी.
गोप गोपी श्याम राधा, ना कोई रोक ना, कौनाऊ बाधा
ना साजन ना गोरी,
‍‍ना साजन ना गोरी दिगंबर, खेले मसाने में होरी.
नाचत गावत डमरूधारी, छोड़ै सर्प-गरल पिचकारी
पीतैं प्रेत-धकोरी दिगंबर खेले मसाने में होरी.
भूतनाथ की मंगल-होरी, देखि सिहाएं बिरिज की गोरी
धन-धन नाथ अघोरी दिगंबर खेलैं मसाने में होरी.

Wednesday, May 6, 2009

बारिश मे गुजरते हुए

बारिश और बारिश
धुंध और कोहरे के दिन
बहुत पुराना रिश्ता है
धुंध, कोहरे और बारिश से मेरा
बारिश मे ये शहर एक शहर नही रहता
समय और काल के पार घुलमिल जाता है
कई दूसरे शहरो से .....................


कभी बारिश मे गुजरते हुए
कई बारिशो की याद युं उठ आती है अचानक
जैसे पहली बारिश के बाद
उठ आती थी मिट्टी की खुशबू
सील जाती थी माचीस की तीली
और बंद पड़े डिब्बे मे चीनी .....


या सर उठाती है इच्छा
गरमागरम चाय की
या फ़िर जैसे जहन मे देर सबेर
कौंध जाती है
एक मटमैली नदी
और पंक्तिया उन कविताओ की
जो मुडी-तुडी शक्ल मे
किसी जेब से निकलती थी ....................

बारिश के बीच बारिश की स्मृति
कुछ यु भी आती है
जैसे बचते-बचाते
चप्पल के नीचे जाता था एक केचुआ
जीवन और मृत्यु
पाप और पुण्य का फैसला सुनाने
और एक लिजलिजापन भीतर तक उतर जाता था......

बारिश के बीच याद आती है,
बहुत सी सर्द और गर्मजोशी से
लबालब मुलाकाते
और वों बहुत से दोस्त
जिनका पता -ठिकाना खो गया है..................


और बारिश के बाद के बहुत सुकूनदेह है
घुले-घुले और धुले से सन्नाटे मे
गीली धुप और वों कुछ ठहरे हुए पल
जो स्मृति से उबर गए है
और भागम-भाग से बचे हुए है.....