Monday, January 7, 2008

धान की कहानी-2












wild rice red rice



3
कमेंट्स स्वपंदर्शी ब्लोग मे (अभी जारी ......)

चंद्रभूषण said...
गांव में अब भी धान की कई आदिम किस्में मौजूद हैं, हालांकि उनपर विलोप का खतरा मंडरा भी रहा है। एक है तिन्ना, जिसे हरा ही काटकर हाथियों को खिलाया जाता है। यह पूरी तरह घास है और इससे चावल निकलने की नौबत ही नहीं आती। दूसरा है तिन्नी, जो ताल के इलाकों में बिना जोते बोए अपने आप उगता है और बहुत पतले, हल्के, पौष्टिक पदार्थों से रहित चावल इसमें आते हैं। इसका चावल व्रत में खाया जाता है और दुकानों पर व्रत के चावल के नाम से ही बेचा-खरीदा जाता है। भारत का सबसे मीठा, बिना सब्जी या दाल के ही खाया जा सकने वाला पारंपरिक चावल शालि नाम के धान से निकलता है। यह भी ताल में उगने वाला धान है, लेकिन इसकी रोपाई नहीं होती। खड़ी बारिश में बीज फेंक दिए जाते हैं और आम धानों से महीने-डेढ़ महीने बाद इसकी कटाई होती है। नए धानों के सामने यह लाल चावलों वाला धान अब दुर्लभ हो चुका है, लेकिन इसका पौष्टिक मूल्य काफी ज्यादा है। हवन में शाकल्य बनाने के लिए इसी के उपयोग का प्रावधान है, जिससे लगता है कि वैदिक काल में जौ के अलावा सबसे ज्यादा प्रयुक्त होने वाला अनाज यही था।
January 7, 2008 2:12 AM
Pankaj said...
We will have to look at these varieties that you mention. It's possible, that it may not belong to the Genus 'Oryza'. The rice we eat especially in India belongs to subspecies Oryza sativa subsp indica, that often produces long grain fragrant rice, compared to the subspecies Oryza sativa subsp japonica, that is known to produce small non-fragrant sticky rice. It is grown primarily from Japan to SE-Asia. Similar to your description of rice varieties, the great lakes region of America also grows the so called 'wild rice' [http://en.wikipedia.org/wiki/Wild_rice] which belongs to the genus 'Zizania'. It is not considered a true rice. There are other species of rice as well that are commonly called 'wild rice' since many of them were not domesticated and grow as wild grasses. However, both Oryza and Zizania belong to the same tribe 'Oryzeae'. Zizania was extensively used by Native Americans and was grown either naturally in the shores of the lakes. With the recent advances and demands in the exotic food industry now this type of rice is grown on a commercial scale. Though everyone expects that the Basmati belongs to the 'indica' subspecies, some recent genetic and genotyping studies suggest that. it is not the case and it evolved separately somewehere in the region of Uttarakhand to North of Burma as a result of a separate domestication event.
January 7, 2008 10:13 AM
Mired Mirage said...
अच्छी जानकारी देने के लिए धन्यवाद । परन्तु तरह तरह के अन्न की प्रजातियों को बनाए रखना लाभकर होगा ।घुघूती बासूती
January 7, 2008 2:42 PM

Sunday, January 6, 2008

उत्तराखंड की एक फसल -धान


धान जिससे चावल बनता है. धान की उत्पत्ति (एक फसल की तरह) उत्तर भारत (सम्भवत: उत्तराखन्ड) मे हुयी और यही से एक लम्बी एतिहासिक यात्रा करती हुयी ये चीन और एशिया के दूसरे भागो मे पहुंची. विश्व के उस भाग को जहा पहले पहल किसी पोधे को फसल का दर्ज़ा मिला, और जहा पर उस पोधे की कई किस्मे (जैव विविधता) पायी जाती है, उसे उस खास जाति का उत्पत्ति केन्द्र (center of origin) कहा जाता है. धान को एक उपयोगी फसल बनाने के लिये कुछ लक्षणो को चुना गया जो मनुष्य के बहुत मन माफिक थे परतु, पोधे के प्रक्रितिक संघर्ष के लिये बेहद नुक्सानदेह; पूरी की पूरी फसल का एक साथ पक जाना, बीज़ के तैयार होने के बावज़ूद पेड से न गिरना. ये दोनो ही लक्षण किसी भी पोधे के प्रक्रितिक रूप से विकास के लिये प्रतिकूल है. अधिकतर जंगली पोधे जो अपनी संतति के लिये मनुष्य पर निर्भर नही करते, उनमे एक ही पोधे के बीज़ एक बडे अंतराल मे पकते है और पकते ही पेड से झड जाते है, जिससे उन्हें उगने के लिये अपने अनुकूल मौषम मिलने मे आसानी हो. पर आज इस्तेमाल मे आने वाली सारी फसले अगर इस प्रक्रितिक नियम का पालन करें तो पूरी फसल की एक साथ कटाई सम्भव नही है. और इसी तरह बिना मनुष्य की सहायता के कोई भी फसल लम्बे समय तक अपना अस्तित्व नही बचा सकती. इसके अलावा कुछ दूसरे लक्षण भी चुने गये, जैसे चावल के सफेद रंग को लाल रंग के चावल की जगह वरीयता दी गयी. बासमती चावल को खुशबू के लिये चुना गया, और सभी चावल के दानो को एक निश्चित समय अवधि के भीतर पक जाने के लिये चुना गया. प्रक्रितिक रूप से हर दूसरे पोधे से आने वाले दाने, अलग-अलग समय मे पकते, और फिर किसी एक पतीले मे भात बनाना मनुष्य के लिये सम्भव न था. हमारी लोक् कथाओ. मे इस तरह के कई बिम्ब छुपे है, जिनका सन्दर्भ शायद एक जंगली घास का धान बनने की कहानी से हो. इसी तरह की एक कहानी मुझे गत वर्ष अपने प्यारे और सम्मानीय गिरीश तिवारी “गिर्दा” से बातचीत के दौरान पता चली. इस लोक कथा के हिसाब से एक परिवार अपने भोजन के लिये सिर्फ चावल का एक दाना हान्डी मे पकाता था, और हांडी भारत जाती थी, जो सब के लिये पर्याप्त थी. ऎक दिन इस परिवार मे अचानक ने कुछ मेहमान आते है, और एक की बज़ाय दो दाने मिला कर पकाये जाते है, परंतु हान्डी के आधे चावल कच्चे और आधे पके रहते है, और सभी को भूखा रहना पड्ता है. सम्भव् है कि ये लोक कथा उन दिनों का एक बिम्ब बचा रह गया हो हमारी स्म्रति मे, जब हर पोधे से निकलने वाले दाने पकने के लिये अलग अलग समय की मांग करते हो. और दो दानो की बजाय दो अलग अलग पोधो से निकले बीज़ उस हांडी मे पकाये गये हो.