मंगलेश डबराल मेरे पसंदीदा कवियों मे से है। उनकी एक कविता, उनके काव्य संकलन "पहाड़ पर लालटेन" से साभार.
अगले दिन
पहले उसकी सिहरती हुयी पीठ देखी
फ़िर दिखा चेहरा
पीठ जैसा ही निर्विर्कार
कितने सारे चहरे लांघकर आया हुआ
वह चेहरा जिस पर दो आँखे थी
सिर्फ़ देखती हुयी, कुछ न चाहती हुयी।
वह अकेली थी उस रात
वह कही जा रही थी अपना बचपन छोड़ कर
कितने सारे लोगो द्वारा आतंकित
कितने सारे लोगो द्वारा सम्मोहित
कितने सारे लोगो की तनी हुयी आँखों के नीचे
कितनी झुकी है उसकी आँखे
की वह देख नही पाती अपनी और आती मृत्यू
हर चीज़ के आख़िरी सिरे तक
वे उसके पीछे जायेंगे
जहा से एक सुरंग शुरू होती है
सुरंग मे कई पदों मे से एक पेड़ तले
बैठा होता है उसका परिवार
माँ-बाप, भाई बहन
और पोटलिया जिनमे भविष्य बंद है
सापों की तरह
वों सारा कुछ सोच कर रखेंगे
पहले से दया, पहले से प्रेम
पहले से तैयार थरथराते हाथ
वे उसे पा लेंगे बिना परिवार के
बिना बचपन के, बिना भविष्य के
और खींच ले जायेंगे एक जगह
कोई नही जान पायेगा किस जगह
डराते मंत्रमुग्ध करते
अगले दिन उसके भीतर
मिलेंगे कितने झडे पत्ते
अगले दिन मिलेगी खुरो की छाप
अगले दिन अपनी देह लगेगी बेकार
आत्मा हो जायेगी असमथ
कितने कीचड कितने खून से भरी
रात होगी उसके भीतर अगले दिन
4 comments:
मंगलेश जी की कविता को पढवाने के लिए शुक्रिया।
सुंदरतम रचना। धन्यवाद।
manglesh ji ko pareshan karne ka sobhagya kareeb do dashak tak hame bhi mila hai.
wah! bhai bahut achchhi kavita dali aapane.
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