ये कविता हमारे मित्र सिद्धेश्वर सिंह् ने ईमेल से भेजी है, कुछ तकनीकी दिक्कतों के चलते अभी वो सीधा पोस्ट नही कर पा रहे है.
क्या लिखें क्या ना लिखें इस हाल में,
लोग कितने अजनबी हैं शहर नैनीताल में।
कोहरे मे डूबा हुआ है चेहरा दर चेहरा,
वादी जैसे गुमशुदा है सुन्दर मायाजाल में ।
इस सड़क से उस सड़क तक घूमना बस घूमना ,
इक मुसलसल सुस्ती- सी है इस शहर की चाल में ।
धूप में बैठे हुये दिन काट देतें हैं यहां ,
कौन उलझे जिन्दगी के जहमतो- जंजाल में ।
आज के हालात का कोई जिकर होता नहीं ,
किस्से यह कि दिन थे अच्छे शायद पिछले साल में ।
इस शहर का दिल धड़कता है बहुत आहिस्तगी से,
इस शहर को तुम न बांधो तेज लय- सुर - ताल में । *
क्या लिखें क्या ना लिखें इस हाल में,
लोग कितने अजनबी हैं शहर नैनीताल में।
कोहरे मे डूबा हुआ है चेहरा दर चेहरा,
वादी जैसे गुमशुदा है सुन्दर मायाजाल में ।
इस सड़क से उस सड़क तक घूमना बस घूमना ,
इक मुसलसल सुस्ती- सी है इस शहर की चाल में ।
धूप में बैठे हुये दिन काट देतें हैं यहां ,
कौन उलझे जिन्दगी के जहमतो- जंजाल में ।
आज के हालात का कोई जिकर होता नहीं ,
किस्से यह कि दिन थे अच्छे शायद पिछले साल में ।
इस शहर का दिल धड़कता है बहुत आहिस्तगी से,
इस शहर को तुम न बांधो तेज लय- सुर - ताल में । *
सिद्धेश्वर सिंह्
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