नैनीताल की पहली याद मुझे १९८२ की है। उस वक्त मेर पिताजी की पोस्टिंग अल्मोड़ा मे थी, और मेरे एक मामा अपनी नयी-नयी हुयी शादी का हनीमून मनाने के लिए अल्मोड़ा -नैनीताल की यात्रा पर थे। अल्मोड़ा मे वे हमारे घर पर आये थे। मिया बीबी दिन भर पिताजी के स्कूटर पर अल्मोड़ा के आस-पास घुमते-घुमाते शाम तक घर आ जाते थे। और इतवार के दिन हम सपरिवार उनके साथ किसी जगह निकल जाते थे। उसमे एक बार अल्मोड़ा के चितायी मंदिर और नैनीताल जाने की मुझे याद है।सो एक ऐसे ही इतवार को हमारा अल्मोड़ा से नैनीताल जाना हुआ, एक किराए की टैक्सी मे, किसी तरह चार बडे जन और चार बच्चे, ठूस के आ पाए। सुबह ६ बजे अल्मोड़ा से निकलकर हम करीब ९.३० -१०.०० बजे के करीब नैनीताल पहुँचे।मैं सबसे पहले टैक्सी से बाहर निकली, और जब तक बाक़ी लोग खडे होने लायक और अपना कार्यक्रम बनाते, मैंनेनैनीताल का बस स्टेशन जिसे "डाट" कहा जाता है, से झील का एक नज़ारा लिया, करीब १०-११ साल की उम्र मे। मुझे जब भी मैं नैनीताल के बारे मे सोचती हूँ, वही छवी सबसे पहले दिमाग मे आती है। बिल्कुल मुहं के सामने खडे पहाड़, एक तरह से dristii को ब्लोक करते हुए, जैसे पूरा क्षितीज छीनने की कोशिश मे। उन पहाडों के पीछे की पूरी दूनिया छिप जाती है। कुछ हद तक मुझे ये नागावार गुजरा, कुछ घुटन सी भी हुयी, जैसे सामने कोई दीवार। इसके बनिस्पत मुझे अल्मोड़ा कहीं ज्यादा अच्छा लगा जहाँ जरा दूर से पर्वत श्रन्खालाये दिखायी देती थी। पर झील, मे कुछ था जादू करने जैसा, जो अभी ढाई दशक के बाद भी मुझे मोहित करता है। हर बार नए मायने के साथ.वहाँ पर टैक्सी से निकलकर हमने पिछाडी बाज़ार मे रहनेवाले ताऊजी के घर का रास्ता लिया, जो मेरी माँ को कोई १३ साल बाद भी याद था। जो जो पर्यटक करते है, वो कुछ मामा मामी के साथ हम बच्चों ने भी किया, मालरोड़ पर भुट्टे खाते घूमना, नौका विहार। माँ साथ नही आयी, क्योंकी तायीजी के साथ उन्हें अपनी बातचीत पूरी करनी थी, सालों की। पिताजी के काम कुछ और ज्यादा खींच गए, और फिर उन्हें माँ को लेकर डेंटिस्ट के पास जाना था।सो मेरे मामा मामी अपने हनीमून मे तीन बच्चों को साथ लिए, नैनीताल मे घुमते रहे। हमारी पीढ़ी के लिए ये बड़ी अटपटी सी बात है। पर वो जमाने ऐसे ही थे, जब हमारी शब्दावली मे कजिन शब्द नही होता था। दीदी या भेजी, दाज्यु ऐसे ही होता था। किसी बड़े से जब पूछा जाता था की बच्चे कैसे है? तो अपने बच्चों के बारे मे बताने से पहले वो बड़े भाई के बच्चों के बारे मे बताता था। कुछ ऐसे लोग भी थे जो बच्चों मे बताने लायक सिर्फ लड़कों को गिनते थे और चार लड़कियों के बारे मे न बताकर सिर्फ एक लड़के के बारे मे बताते थे। अक्सर ऐसे मौकों पर मेरी माँ खुद लड़कियों के बारे मे पूछती थी। या फिर घर की दूसरी औरते ब्याही, अनब्याही लड़कियों की खबर लेती थी। आश्चर्यजनक रुप से पुरुषों की आपसी बातचीत मे बेटियों के संदर्भ काफी दिनों तक गायब रहे, कम से कम तब तक जब हाईस्कूल की परीक्षा मे घर की लड़कियों के नम्बर लड़कों से बहुत ज्यादा आये। फिर घर परिवार मे लड़कियों को कम से कम स्कूल टीचर या बहुत हुआ तो डाक्टर बनाने के सपने उगने लगे। और उसके बाद से लड़कियों की पढायी लिखाई, संबंधित बाते सब जगह शामिल हुयी। यहाँ पर मेरे माता पिता की पीढ़ी ने एक नयी परम्परा की शुरुआत की। धन्यवाद उन परिवार की दीदीयों का जिन्होंने ये रास्ते खोले। जिन दिनों ये चलन शुरू हुआ तब मेने प्राईमरी ख़त्म की थी। और हमारी सबसे बड़ी दो कजिन बहने युनिवर्सिटी मे थी, एक M Ed कर रही थी, और दूसरी अपने स्टेट लेवल पर कॉलेज की बास्केटबाल टीम मे खेल चुकी थी। मुझसे उम्मीद डाक्टर बनने की थी। बाक़ी कई भाई लोग DSB, नैनीताल या देहरादून मे पड़ते थे. पर घर के लड़के १९४० मे युनिवर्सिटी जा चुके थे, लड़कियों की ये बारी, ३५ साल बाद आयी। यानी १९७५ के आस-पास। इस लिहाज़ से मुख्य आकर्षण लड़कियों का युनिवर्सिटी जाना था। उनके किस्से थे। सो कुछ ऐसा हुआ की परिवार मे युनिवर्सिटी मे पढ़नेवाले लड़के उपेक्षित हो गए। और भाई लोग आज भी इस बात का मजाक या फिर ताना देते है.इसी पृष्ठ भूमि मे मेरा पहली बार नैनीताल जाना हुआ १८८२ मे। परिवार के बाक़ी लोग अल्मोड़ा वापस चले गए और मेरा एक हफ्ते और रुकने का प्रोग्राम बना क्योंकि दशहरे की छुट्टी थी। दिन रात बड़े भाई बहनो के साथ गप्सप, उनके कॉलेज के किस्से, जो फिल्म उन्होने देखी थी उसकी कहानी सुनना, फिर एक हफ्ते तक खूब मालरोड़ घूमी, लोटेवाले की जलेबी खायी, हनुमान गढ़यी गए, तिफ्फिन टॉप गए। फ्लेट्स से कुछ स्वेटर खरीदे। तायीजी के बनाए हुए चूर्कानी, रस भात, उनका स्पेशल रायता. हल्द्वानी रोड पर क्रिकेट खेला, इस ज्ञान के साथ की कभी भी कोई कार, बस या ट्रक आ सकता है।
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