(योगेश पांथरी को समर्पित)
वे आए
आठ-दस एक जीप में लदकर दूर गाँव से
और तनकर बैठे रहे कुर्सियों पर मेरे सामने
मुझ तक पहुँच कर भी कोई चीज़ रोकती रही उन्हें
मुझ तक पहुँचने से
उन्होंने कुछ बातें की
थोड़ा हँसे
मेरी पत्नी और बच्चे से वे पहली बार मिले
ढलती शाम वे पहुंचे थे
और मैं लगभग निरूपाय था उनके आगे
थोड़ा शर्मिन्दा भी
घर में नहीं थी इतनी जगह
यह एक मशहूर पहाड़ी शहर था
मैं उन्हें बाहर ले गया
जाते हुए
पत्नी ने कुछ पैसे दिए
होटल में कमरा दिलाने के वास्ते
वे मुझसे मिलने आए थे
बरसों बाद
मैंने उन्हें सुन्दर भूदृश्य दिखाए
पहाड़ और घाटी
फलों के बाग़ीचे और होटल में उनके कमरे
अगले दिन तड़के वे चले गए
घर की कुर्सियों पर छूट गया था उनका तनाव
बच्चे ने बड़े चाव से खायी उनकी लायी मिठाई
पत्नी ने कहा वे अच्छे थे
लेकिन
वे चले गए थे बिना मुझ तक पहुंचे
बिना मुझसे मिले
दूर गाँव तक पहुँच गयी थी
मेरी कुशल-बात।
4 comments:
बहुत भावपूर्ण रचना है।बहुत सुन्दर!
achchhee ,kavita
आठ दस न होते तो शायद कहीं भी बिस्तर लग जाते । मुझे याद आते हैं वे दिन जब हम बिस्तर, रजाई लेकर यात्रा करते थे और किसी भी अपने के घर रुक जाने पर उन्हें विशेष परेशानी भी न होती थी । तब उनके साथ ही चूल्हे पर खाना बना लिया जाता था और मिल कर खा लिया जाता था । वैसा ही जब कोई हमारे घर आता तो होता था ।
मिलने में मन का मिलना शारीरिक उपस्थिति से अधिक आवश्यक है । पहाड़ में भी ऐसा मिलना शुरू हो गया ?
घुघूती बासूती
'लेकिन
वे चले गए थे बिना मुझ तक पहुंचे
बिना मुझसे मिले' - दिल की गहराई का यथार्थ प्रस्तुत करती पंक्तियाँ.
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