ब्लॉग की सदस्यता तो बहुत दिन पहले ही ले ली थी परन्तु क्षमा चाहूँगा किन्ही कारणों वश अब तक नियमित रूप से आ नही पाया | आज सुषमा जी से बात हुई और उन्होंने फिर वो सब याद दिला दिया जो अक्सर हम अपनी ही आपाधापी में कहीं भूलने लगते हैं | इसी सन्दर्भ में कुछ दिनों पहले कुछ पंक्तियाँ लिख एक कविता बनाने का प्रयास किया था | आज फिर से ढूंढी और ब्लॉग पर पोस्ट कर रहा हूँ ......
चम्पावत में बीते अपने बचपन को याद करते हुए...
हिम के शिखरों से पिघल पिघल
कर कर निनाद मादक कल कल,
अब भी सुन लेता हूँ 'उत्श्रंखल'
घर के पीछे, उस सरिता का जल |
चहुँ ओर दिखे थी खुशियाली
वन कानन और बस हरियाली ,
फिर महकें फूल बुरांशो के जब
अद्भुत, अप्रतिम छटा निराली |
सुहानी चंचल बयार वो मनहर
तन मन को करती थी शीतल,
कर त्राहि त्राहि इन शहरों में
वापस जाने को अब मन आकुल |
हिशालू और खूब किरमोडी,
झाड़ी में वो घुस घुस खाना,
बचपन की जब याद दिलायें
उनमें चाहूँ फिर खो जाना |
काफल के मीठे मीठे फल
पेड़ पेड़ में फुदक के जाना,
सेव संतरे आडू खुबानी
अब लगता है गुज़रा जमाना |
घने जंगलों में छोटा सा मंदिर
और उसमें जागर का लगना
अब भी थोडा याद है मुझको
वो डंगर, देवता और अतरना |
होली के रंग में था रंग जाता
दिनों दिनों तक हर नारी नर,
ढोल की थाप, मजीरे का स्वर
होली गाते फगुए हर आँगन घर |
ब्या-बर्यातों का अनूप कोलाहल
छोलिया नृत्य और दमुओ का स्वर,
न्यूत में जाकर, लौर में खाना
ना मिला पाता अब लाख चाह कर |
भूली बिसरी इस दुनिया में जब
थक जाता हूँ दौड़ भाग कर ,
मन के अन्दर भाव उमड़ते
जी लूं कुछ पल वापस जा कर |
--------- निपुण पाण्डेय "अपूर्ण"
3 comments:
bahtrin bahut khub
badhia aap ko is ke liye
shkehar kumawat
'भूली बिसरी इस दुनिया में जब
थक जाता हूँ दौड़ भाग कर ,
मन के अन्दर भाव उमड़ते
जी लूं कुछ पल वापस जा कर '
- एक प्रवासी की नराई का अच्छा वर्णन है.
भौते भौल लिख राखो तुमूल दाज्यू
Post a Comment