Sunday, May 22, 2011

नराई


गाढ़े कैनवस पर दूर तक खिंचती जाती है खुशी की रोशन लकीर
किसी संकरी  गली के मुहाने से झांकती है  उम्मीद
बहुत देर तक  खाईयों बीच झूलता है एक पुल
धीमें कहीं गुपचुप  बजता है एक राग- "पीलू"  


जब तब सौंफ की महक उठती है
स्वाद  उकेर देता है कोई स्मृति में 
रह रह कर बारिश की बूंदे झरती हैं ,
हौले हौले अधूरा इन्द्रधनुष बनता है
जलतरंग के मोह में एक बच्चा कंकण फेंकता चलता है
और बस अभी अभी
एक मछली खेलती दिखती है तरणताल में

तय जगह कोई मयस्सर नही
अजाने ही  स्मृतियाँ  हवा  सी सरसराती
रेत में लहर बन बहती हैं 
बस  ज़रा सी देर को कभी भी, कंहीं भी....

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