Friday, June 11, 2010

हिमालय के घाव---------------भूपेन सिंह

प्राकृतिक संसाधनों से समृद्ध उत्तराखंड धीरे-धीरे पारिस्थिक तौर पर खोखला बनता जा रहा है. ऐसा करने का काम जनता का कोई घोषित दुश्मन नहीं बल्कि चुनी हुई सरकारें कर रही है. राज्य को ऊर्जा प्रदेश बनाने का दावा करने वाली उत्तराखंड सरकार ने केंद्र के साथ मिलकर वहां पर सैंकड़ों छोटी-बड़ी विद्युत परियोजनाएं शुरू की हैं. बांध बनाने के लिए पहाड़ों में सुरंग खोदकर नदियों को एक जगह से दूसरी जगह पहुंचाने का काम जारी है. अगर सभी योजनाओं पर काम पूरा हो गया तो एक दिन जल स्रोतों के लिए मशहूर उत्तराखंड में नदियों के दर्शन दुर्लभ हो जाएंगे. इससे जो पारिस्थितिकीय संकट पैदा होगा उससे इंसान तो इंसान, पशु-पक्षियों के लिए भी अपना अस्तित्व बचाना मुश्किल हो जाएगा.
एक तरफ़ भारत सरकार ने गंगा को राष्ट्रीय नदी घोषित किया है लेकिन उसकी मूल नदी भागीरथी अब पहाड़ी घाटियों में ही ख़त्म होती जा रही है. अपने उद्गम स्थान गंगोत्री से थोड़ा आगे बढ़कर हरिद्वार तक उसको अपने नैसर्गिक प्रवाह में देखना अब मुश्किल हो गया है. गंगोत्री के कुछ क़रीब से एक सौ तीस किलोमीटर दूर धरासू तक नदी को सुरंग में डालने से धरती की सतह पर उसका अस्तित्व ख़त्म सा हो गया है. उस इलाक़े में बन रही सोलह जल विद्युत परियोजनाओं की वजह से भागीरथी को धरती के अंदर सुरंगों में डाला जा रहा है. बाक़ी प्रस्तावित परियोजनाओं के कारण आगे भी हरिद्वार तक उसका पानी सतह पर नहीं दिखाई देगा या वो नाले की शक्ल में दिखाई देगी. मनेरी-भाली परियोजना की वजह से भागीरथी को सुरंग में डालने से अब घाटी में नदी की जगह पर सिर्फ़ कंकड़ दिखाई देते हैं. यही हालत गंगा की दूसरी मुख्य सहायक नदी अलकनंदा की भी है. लामबगड़ में सुरंग में डाल देने की वजह से उसका भी पानी धरती की सतह पर नहीं दिखाई देता. नदी की जगह वहां भी पत्थर ही पत्थर दिखाई देते हैं. आगे गोविंदघाट में पुष्पगंगा के मिलने से अलकनंदा में कुछ पानी ज़रूर दिखाई देने लगता है.
ये हाल तो गंगा की प्रमुख सहायक नदियों भागीरथी और अलकनंदा का है. उत्तराखंड से निकलने वाली बाक़ी नदियों से साथ भी सरकार यही बर्ताव कर रही है. जिस वजह से धीरे-धीरे पहाड़ों का जीवन अपार जल संपदा के होने के बाद भी हर लिहाज़ से शुष्क होता जा रहा है. एक अनुमान के मुताबिक़ राज्य में सुरंगों में डाली जाने वाली नदियों की कुल लंबाई क़रीब पंद्रह सौ किलोमीटर होगी. इतने बड़े पैमाने पर अगर नदियों को सुरंगों में डाला गया तो जहां कभी नदियां बहती थीं वहां सिर्फ़ नदी के निशान ही बचे रहेंगे. इससे उत्तराखंड की जैव विविधता पर क्या असर पड़ेगा इसका अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है. विकास के नाम पर कुदरत के साथ इस तरह का मज़ाक जारी रहा तो विकास चाहे जिसका हो नदियों से भौतिक और सांस्कृतिक तौर पर गहरे जुडे लोगों का जीना ज़रूर मुश्किल हो जाएगा. इन सभी चिंताओं को केंद्र में रखकर उत्तराखंड के विभिन्न जन संगठनों ने मिलकर नदी बचाओ आंदोलन शुरू किया है. लेकिन हैरत की बात ये है कि पर्यावरण से हो रही इतनी बड़ी छेड़छाड़ को लेकर राष्ट्रीय या अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कोई चर्चा नहीं हो रही है.
इस बात का अनुमान कोई भी साधारण बुद्धि का इंसान लगा सकता है कि अगर पहाड़ी नदियों को रोककर सुरंगों में डाला गया तो इससे नदी किनारे बसे गांवों के लिए अस्तित्व का संकट पैदा हो जाएगा. इस बात की शुरूआत हो भी चुकी है. जिन जगहों पर नदियों को सुरंगों में डाला जा चुका है. वहां लोगों के खेत और जंगल सूखने लगे हैं. पानी के नैसर्गिक स्रोत ग़ायब हो गए हैं. सुरंगों के ऊपर बसे गांवों में कई तरह की अस्वाभाविक भूगर्वीय हलचल दिखाई देने लगी हैं. कहीं घरों में दरारें पड़ गई हैं तो कहीं पर ज़मीन धंसने लगी है. चार सौ मेगावॉट की विष्णुप्रयाग विद्युत परियोजना की वजह से चांई गांव में मकान टूटने लगे हैं. भूस्खलन के डर से वहां के कई परिवार तंबू लगाकर खेतों में सोने को मजबूर हैं.
जिन पहाड़ियों में सुरंग बन रही हैं. वहां बड़े पैमाने पर बारूदी विस्फोट किए जा रहे हैं. जिससे वहां भूस्खलन का ख़तरा बढ़ गया है. जोशीमठ जैसा ऐतिहासिक और पौराणिक महत्व का नगर भी पर्यावरण से हो रहे इस मनमाने खिलवाड़ की वजह से ख़तरे में आ गया है. उसके ठीक नीचे पांच सौ बीस मेगावॉट की विष्णुगाड़-धौली परियोजना की सुरंग बन रही है. डरे हुए जोशीमठ के लोग कई मर्तबा आंदोलन कर अपनी बात सरकार तक पहुंचाने की कोशिश कर चुके हैं. लेकिन उनकी मांग सुनने के लिए सरकार के पास वक़्त नहीं है. कुमाऊं के बागेश्वर ज़िले में भी सरयू नदी को सुरंग में डालने की योजना पर अमल शुरू हो चुका है. ग्रामीण इसके खिलाफ़ आंदोलन चला रहे हैं. ज़िले के मुनार से सलिंग के बीच का ये इलाक़ा उन्नीस सौ सत्तावन में भूकंप से बड़ी तबाही झेल चुका है. इसलिए यहां के ग्रामीण किसी भी हालत में सरयू नदी को सुरंग में नहीं डालने देना चाहते. यहां भी जनता के पास अपने विकास के रास्ते चुनने का अधिकार नहीं है.
उत्तराखंड में नदियों को सुरंग में डालने का विरोध कई तरह से देखने को मिल रहा है. एक तो इससे सीधे प्रभावित लोग और पर्यावरणविद् विरोध कर रहे हैं. दूसरा उत्तराखंड की नदियों को पवित्र और मिथकीय नदियां मानने वाले धार्मिक लोग भी विरोध में उतरे हैं. मसलन हरिद्वार में चल रहे महाकुंभ के दौरान साधुओं ने भी गंगा पर बांध बनाने का विरोध किया है. उनके मुताबिक़ गंगा पर बांध बनाना हिंदुओं की आस्था के ख़िलाफ़ है. इसलिए वे गंगा को अविरल बहने देने की वकालत कर रहे हैं. अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद ने गंगा पर बांध बनाने की हालत में महाकुंभ का वहिष्कार करने और हरिद्वार छोड़कर चले जाने की धमकी दी. इस धमकी की वजह से उत्तराखंड के मुख्यमंत्री निशंक को साधुओं से मिलना पड़ा. लेकिन बांध बनाने का काम शुरू कर चुकी सरकार किसी भी हालत में पीछे हटने को तैयार नहीं लगती. इसकी एक बड़ी वजह सरकार में निजी ठेकेदारों की गहरी बैठ है. अंदर खाने उत्तराखंड की भाजपा सरकार साधुओं को मनाने की पूरी कोशिश में जुटी है, क्योंकि साधु-संन्यासी उसका एक बड़ा आधार हैं. लेकिन अपने क़रीबी ठेकेदारों को उपकृत करने से वो किसी भी हालत में पीछे नहीं हटना चाहती. साधुओं की मांग पर सोचते हुए इस बात का ध्यान रखना ज़रूरी है कि ये मामला सिर्फ़ धार्मिक आस्था का नहीं बल्कि उससे कहीं ज़्यादा उत्तराखंड के लोगों के भौतिक अस्तित्व से जुड़ा है.
उत्तराखंड को अलग राज्य बने हुए क़रीब दस साल हो गए हैं. लेकिन आज भी वहां पर लोगों के पीने के पानी की समस्या हल नहीं हो पाई है. ये हाल तब है जब उत्तराखंड पानी के लिहाज़ से सबसे समृद्ध राज्यों में से एक है. ठीक यही हाल बिजली का भी है. उत्तराखंड में बनने वाली बिजली राज्य से बाहर सस्ती दरों पर उद्योगपतियों को तो मिलती है लेकिन राज्य के ज़्यादातर गांवों में आज तक बिजली की रोशनी नहीं पहुंच पाई है. वहां एक पुरानी कहावत प्रचलित रही है कि पहाड़ की जवानी और पहाड़ का पानी कभी उसके काम नहीं आता. उत्तराखंड राज्य की मांग के पीछे लोगों की अपेक्षा जुड़ी थी कि एक दिन उन्हें अपने प्राकृतिक संसाधनों पर अधिकार मिल पाएगा, विकास का नया मॉडल सामने आएगा और युवाओं का पलायन रुकेगा. लेकिन हक़ीक़त में इसका बिल्कुल उल्टा हो रहा है.
उत्तराखंड या मध्य हिमालय दुनिया के पहाड़ों के मुक़ाबले अपेक्षाकृत नया और कच्चा पहाड़ है. इसलिए वहां हर साल बड़े पैमाने पर भूस्खलन होते रहते हैं. भूकंपीय क्षेत्र होने की वजह से भूकंप का ख़तरा भी हमेशा बना रहता है. ऐसे में विकास योजनाओं को आगे बढ़ाते हुए इन बातों की अनदेखी जारी रही तो वहां पर आने वाले दिन तबाही के हो सकते हैं, जिसकी सबसे ज़्यादा ज़िम्मेदार हमारी सरकारें होंगी. हैरत की बात है कि उत्तराखंड जैसे छोटे भूगोल में पांच सौ अठावन छोटी-बड़ी जल विद्युत परियोजनाएं प्रस्तावित हैं. इन सभी पर काम शुरू होने पर वहां के लोग कहां जाएंगे इसका जवाब किसी के पास नहीं है. उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों में पर्यावरण के खिलवाड़ के ख़िलाफ़ आंदोलनों की लंबी परंपरा रही है. चाहे वो चिपको आंदोलन हो या टिहरी बांध विरोधी आंदोलन. लेकिन राज्य और केंद्र सरकारें इस हिमालयी राज्य की पारिस्थिकीय संवेदनशीलता को नहीं समझ रही है. सरकारी ज़िद की वजह से टिहरी में बड़ा बांध बनकर तैयार हो गया है. लेकिन आज तक वहां के विस्थापितों का पुनर्वास ठीक से नहीं हो पाया है. जिन लोगों की सरकार और प्रशासन में कुछ पहुंच थी वे तो कई तरह से फ़ायदे उठा चुके हैं लेकिन बड़ी संख्या में ग्रामीणों और ग़रीबों को उचित मुआवजा़ नहीं मिल पाया है. ये भी नहीं भूला जा सकता कि इस बांध ने टिहरी जैसे एक ऐतिहासिक और सांस्कृतिक शहर को भी डुबाया है. यहां के कई विस्थापितों को तराई की गर्मी और समतल ज़मीन पर विस्थापित किया गया. पहाड़ी लोगों को इस तरह उनकी इच्छा के विपरीत एक बिल्कुल ही विपरीत आबो-हवा में भेज देना कहां तक जायज था इस पर विचार करने की ज़रूरत कभी हमारी सरकारों ने नहीं समझी. सरकारों ने जितने बड़े पैमाने पर बिजली उत्पादन के दावे किए थे वे सब खोखने साबित हुए हैं. वहां सिर्फ़ एक हज़ार मेगावॉट ही बिजली पैदा हो पा रही है. जबिक योजना दो हज़ार चार सौ मेगावॉट बिजली पैदा करने की थी. सबसे बड़ी बात कि इससे राज्य के लोगों की ज़रूरत पूरा करने के लिए राज्य सरकार के पास अधिकार भी नहीं हैं.
दुनियाभर के भूगर्ववैज्ञानिक इस को कई बार कह चुके हैं कि हिमालयी पर्यावरण ज़्यादा दबाव नहीं झेल सकता इसलिए उसके साथ ज़्यादा छेड़छाड़ ठीक नहीं. लेकिन इस बात को समझने के लिए हमारी सरकारें बिल्कुल तैयार नहीं हैं. कुछ वक़्त पहले हिमालयी राज्यों के कुछ सांसदों ने मिलकर लोकसभा में एक अलग हिमालयी नीति बनाने को लेकर आवाज़ उठाई थी लेकिन उसका भी कोई असर कहीं दिखाई नहीं देता. हिमालय के लिए विकास की अलग नीति की वकालत करने वालों में से एक महत्वपूर्ण सांसद प्रदीप टम्टा उत्तराखंड के अल्मोडा-पिथौरागढ़ सीट से चुने गए हैं. कांग्रेस के नेता बनने से पहले वे चिपको और उत्तराखंड के जनआंदोलनों से जुड़े रहे, लेकिन अब वे भी अपने पार्टी हितों को तरजीह देते हुए राज्य में पर्यावरण से हो रहे खिलवाड़ के ख़िलाफ़ कुछ नहीं बोल पा रहे हैं.
आज पहाड़ी इलाकों में विकास के लिए एक ठोस वैकल्पिक नीति की ज़रूरत है. जो वहां की पारिस्थितिकी के अनुकूल हो. ऐसा करते हुए वहां की सामाजिक, सांस्कृतिक और भूगर्वीय स्थितियों का ध्यान रखा जाना ज़रूरी है. इस बात के लिए जब तक हमारी सरकारों पर चौतरफ़ा दबाव नहीं पड़ेगा तब तक वे विकास के नाम पर अपनी मनमानी करती रहेंगी और तात्कालिक स्वार्थों के लिए कुछ स्थानीय लोगों को भी अपने पक्ष में खड़ा कर विकास का भ्रम खड़ा करती रहेंगी. लेकिन एक दिन इस सब की क़ीमत आने वाली पीढ़ियों को ज़रूर चुकानी होगी. आज उत्तराखंड में अनगिनत बांध ही नहीं बन रहे हैं बल्कि कई जगहों पर अवैज्ञानिक तरीक़े से खड़िया और मैग्नेसाइट का खनन भी चल रहा है. इसका सबसे ज़्यादा बुरा असर अल्मोड़ा और पिथौरागढ़ ज़िलों में पड़ा है. इस वजह से वहां भूस्खलन लगातार बढ़ रहे हैं. नैनीताल में भी बड़े पैमाने पर जंगलों को काटकर देशभर के अमीर लोग अपनी ऐशगाह बना रहे हैं. अपने रसूख का इस्तेमाल कर वे सरकार को पहले से ही अपनी मुट्ठी में रखे हुए हैं. पर्यारण से हो रही इस छेड़छाड़ की वजह से ग्लोबल वार्मिंग का असर उत्तराखंड में लगातार बढ़ रहा है. वहां का तापमान आश्चर्यजनक तरीक़े से घट-बढ़ रहा है. ग्लेशियर लगातार पिघल रहे हैं. इस सिलसिले में पिछले दिनों राजेंद्र पचौरी की संस्था टेरी और पर्यावरण मंत्रालय के बीच हुआ विवाद का़फी चर्चा में रहा. वे इस बात पर उलझे रहे कि हिमालयी ग्लेशियर कब तक पिघल जाएंगे. लेकिन इसकी तारीख़ या साल जो भी हो इतना तय है कि सुरक्षा के उपाय नहीं किए गए तो भविष्य में ग्लेशियर ज़रूर लापता हो जाएंगे. तब उत्तर भारत की खेती के लिए बरदान माने जाने वाली नदियों का नामो-निशान भी ग़ायब हो सकता है. तब सरकारें जलवायु परिवर्तन पर घड़ियाली आंसू बहाती रहेगी.
टिहरी बांध का दंश राज्य के ग़रीब लोग पहले ही देख चुके हैं. अब नेपाल सीमा से लगे पंचेश्वर में सरकार एक और विशालकाय बांध बनाने जा रही है. ये बांध दुनिया का दूसरा सबसे ऊंचा बांध होगा. ये योजना नेपाल सरकार और भारत सरकार मिलकर चलाने वाली हैं. इससे छह हज़ार चार सौ मेगावॉट बिजली पैदा करने की बात की जा रही है. इसमें भी बड़े पैमाने पर लोगों का विस्थापन होना है और उनकी खेती योग्य उपजाऊ़ जमीन बांध में समा जानी है. इस तरह प्राकृतिक संसाधनों से समृद्ध होना ही आज उत्तराखंड के लिए सबसे बड़ा अभिशाप बन गया है. सारे हालात को देखकर ऐसा लग रहा है कि एक दिन उत्तराखंड के पहाड़ी इलाक़ों में सिर्फ़ बांध ही बांध नज़र आएंगे. नदियां सुरंगों में चली जाएंगी. जो इलाक़े बचेंगे उन में खनन का काम चलेगा. इस विकास को देखने के लिए लोग कोई नहीं बचेंगे. तब पहाड़ों में होने वाले इस विनाश के असर से मैदानों के लोग भी नहीं बच पाएंगे.

8 comments:

माधव( Madhav) said...

you concern are really true and basic.I appreciate yr feelings

VICHAAR SHOONYA said...

badiya hai.and remove word verification

hem pandey said...

उत्तराखंड राज्य बनाने के पीछे मकसद यही था कि उत्तर प्रदेश के मैदानी इलाकों और उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों की समस्याएं अलग अलग थीं. अब भी यदि पहाड़ी इलाकों की समस्याओं का समाधान नहीं हो पा रहा है तो इसकी पूरी जिम्मेदारी राज्य सरकार पर है.

Riya Sharma said...

Eyeopner !!

anuradha srivastav said...

विचारणीय लेख............

Anonymous said...
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Neeraj said...

७२-७५ में कुछ चला था चिपको के नाम पर, तब उन लोगों को पता था कि हमें क्या बचाना है ? कौन आएगा पेड़ काटने? पेड़ क्यूँ बचने हैं वगैरह वगैरह| अब व्यवस्था ने कुल्हाड़ी हमारे ही हाथो में दे दी है , और हम विकास के नाम पर उन्ही पेड़ों को काट रहे हैं| सच बताऊँ तो उन बेचारे कम-पढ़े लिखे इंसानों ने चाहे तो अंधश्रद्धा से चाहे खालिस साइंटिफिक सोच से वो सब करने की प्रेरणा ली है, वो अब हमारे पास नहीं है| चाहे साधुओं की गंगा को अविरल बहने देने का भावुक अनुरोध हो , या सुन्दरलाल बहुगुणा जी का पर्यावरण संरक्षण का वैज्ञानिक दृष्टिकोण, किसी से हमें कुछ फर्क नहीं पड़ता| बाँध बनाना देश के विकास के लिए जरूरी क्यों था, ये घोल घोल कर सबको पिलाया गया| हो गया विकास? अभी २-३ महीने पहले ऋषिकेश हरिद्वार में बाढ़ आने से १०० लोगों की जान चली गयी| खैर ये खबर तो कश्मीर में पत्थरबाजी के चोंचलों की वजह से दब गयी| दैवीय आपदा? ये खबर ऐसे हुई कि किसी को फर्क ही नहीं पड़ा| माना वो १०० लोग कोई नहीं थे, ज्यादातर तो उत्तराखंड के भी नहीं थे शायद, लेकिन कुछ तो इंगित है इस खबर में| बच्चे दब जाते हैं बेचारे , दैवीय आपदा? युवाओं को रोज़गार देने के लिए इन्हें गोपेश्वर, चमोली, पिथोरागढ़, बागेश्वर बहुत हाईट पे लगता है, जब जंगल के जंगल साफ़ करने हो , या बड़े बाँध बनाना हो, तब क्या? पहाड़ी इलाकों में मशीन , उद्योग विकसित करने के नाम पर ये लोग संस्कृति संरक्षण का रोना रोते है| अरे संस्कृति संरक्षण का मतलब ये तो नहीं कि हम लोग नंगे घूमे| थारु, भोटिया, बुक्सा ये जनजातियाँ कहाँ है? इतना ही संरक्षण दे रहे हो तो बता दो|

rakesh naugain said...

बहुत अच्छा और प्रासंगिक प्रश्न उठाया है.