ये ब्लॉग प्रवासी उत्तराखंड के लोगो का ब्लॉग है, जो देश -विदेश के हिस्सों मे दुनियाभर मे बिखरे हुए है. एक बड़ा हिस्सा उन भूतपूर्व विधार्थियों का भी है, जो एक अलग सामाजिक-सांस्कृतिक विरासत लिए उत्तराखंड के स्कूल- कोलेजो मे पढने आए और अपने बनने -बिगड़ने की जद्दोजहद मे चाहे आज कुछ भी बने हो, पर उनका मानस विशुद्द रूप से उत्तराखंड की संस्कृति से सरोबार है। इसमे जाती, धर्म, या संकुचित क्षेत्रीयता नही है, और जो भी उत्तराखंड के मित्र यहाँ आना चाहे ईमेल भेजे; nainitaali@gmail.com
Thursday, December 25, 2008
नववर्ष की शुभकामनाये
The gift of love. The gift of peace. The gift of happiness. May all these be yours at Christmas. The year end brings no greater pleasure then the opportunity to express to you season's greetings and good wishes. May your holidays and new year be filled with joy.
Warm Regards,
Uttarakhand Association of North America (UANA)
Sunday, November 23, 2008
दोस्त
वे आए
आठ-दस एक जीप में लदकर दूर गाँव से
और तनकर बैठे रहे कुर्सियों पर मेरे सामने
मुझ तक पहुँच कर भी कोई चीज़ रोकती रही उन्हें
मुझ तक पहुँचने से
उन्होंने कुछ बातें की
थोड़ा हँसे
मेरी पत्नी और बच्चे से वे पहली बार मिले
ढलती शाम वे पहुंचे थे
और मैं लगभग निरूपाय था उनके आगे
थोड़ा शर्मिन्दा भी
घर में नहीं थी इतनी जगह
यह एक मशहूर पहाड़ी शहर था
मैं उन्हें बाहर ले गया
जाते हुए
पत्नी ने कुछ पैसे दिए
होटल में कमरा दिलाने के वास्ते
वे मुझसे मिलने आए थे
बरसों बाद
मैंने उन्हें सुन्दर भूदृश्य दिखाए
पहाड़ और घाटी
फलों के बाग़ीचे और होटल में उनके कमरे
अगले दिन तड़के वे चले गए
घर की कुर्सियों पर छूट गया था उनका तनाव
बच्चे ने बड़े चाव से खायी उनकी लायी मिठाई
पत्नी ने कहा वे अच्छे थे
लेकिन
वे चले गए थे बिना मुझ तक पहुंचे
बिना मुझसे मिले
दूर गाँव तक पहुँच गयी थी
मेरी कुशल-बात।
Monday, November 17, 2008
कुछ पुराने भूले -बिसरे नाम: नैनीताल की यादे
जब ये ब्लॉग शुरू किया था तो कुछ इसी तरह का विचार था की ये महज एक ब्लॉग न रहे, बल्कि नैनीताल से जुड़े हुए लोगो के संस्मरणों का एक संकलन हो। इसीलिये किसी जल्दबाजी के तहत इस ब्लॉग पर नियमित पोस्ट डालने की कोई बाध्यता नही है। कुछ मित्र जुड़े, जो कभी-कभार कुछ लिख देते है, फ़िर चुप्पी साध कर बैठ जाते है।, पर जितना भी लिखते है, बेहतर लिखते है। एक तरह से ये ब्लॉग हमारे अपने समय का और अपने जीवन का दस्तावेज़ है। इसी की कड़ी में आज आपके साथ फ़िर से प्रोफेस्सर तेजेंद्र गिल के कुछ संस्मरण बांटते है, जो मुझे एक व्यक्तिगत ईमेल के तहत प्राप्त हुए है, पर उनकी इजाज़त से इसे यहाँ ब्लॉग पर प्रकाशित किया जा रहा है।
इसी बहाने प्रोफ़ेसर गिल की कुछ बातें मुझे भी याद है। आज १८ साल बाद भी उनकी जो छवि मन में आयी, वो मेरी यादों में कुछ इस तरह से है, बेहद सलीके से मरून पगडी बांधे और अक्सर नीले या फ़िर काले सूट में , बेहद सज्जन रॉब-दाब वाले प्रोफ़ेसर। बेहद अच्छे चित्र ब्लेकबोर्ड पर क्लास शुरू होने के पहले ही बने रहते थे। और एक बड़ी अच्छी लिखावट और उम्दा चित्रकारी करते हुए, जिस तरह से प्रोफ़ेसर गिल पढाते थे, वो लाज़बाब तरीका था। इस तरह से पढाते हुए मेने कोई दूसरा प्रोफ़ेसर नही देखा। दूसरा ज़ज्बा भी था, उनका, चाहे जो हो, पर अपना पठाय्कर्म पूरा कराने का, जो यूनिवर्सिटी में हड़तालों के चलते, नैनीताल की ठण्ड में दो महीने के अवकाश के चलते, अकसर पूरा नही हो पाता था। पर फ़िर भी चाहे कोलेज बंद हो जाय, लगातार लंबे लेक्चर (तीन घंटे तक बिना रुके) लेकर भी , इतवार के दिन भी , प्रोफेस्सर गिल पढाते थे।
एक मर्तबा उन्होंने हम लोगो को ९ बजे से १२.३० तक पढाना शुरू किया, और पूरी क्लास भूखी -प्यासी इतने बड़े अन्तराल में थक गयी, और ऊपर से दिसम्बर की ठण्ड, और पूरा कोलेज बंद। अंतत: बोलने की हिम्मत किसी की नही हुयी, तो सबने एक साथ लकडी के फर्श पर पैर बजाने शुरू कर दिए। शायद मुझे कभी दुबारा मौका न मिले। इसीलिये, आज में प्रोसेस्सर गिल का तहेदिल से उन दिनों के लिए धन्यवाद भी करना चाहती हूँ। शायद उन लेक्चर्स में से मुझे आज कुछ भी याद नही है, पर काम के प्रति उनकी निष्ठा, का सबक दूर तक प्रेरणा का सबक बना रहेगा ।
-नैनीताली
अब प्रोफ़ेसर गिल की कुछ यादे यहाँ............................
--------तेजेंद्र गिल
Those are the old times now but were probably the best times in my life..........! Having lived in Naini Tal for almost four decades, I have an emotional attachment to the place and the people of that beautiful city. That is the reason I keep surfing the web looking for what is going on in Naini Tal. Just the other day looked at the picture of Dr.Ajay Rawat organizing an event at the flats Malli Tal. Oh man, the time flies fast and people begin to look different than what they looked like in 1963-65, when we were undergraduates, full of energy and coursing through the bajars of Talli Tal and Malli Tal, and of course, the famous mall road. It was then that I had first known Dr.D.D.Pant, and thereafter, never forgot that great man. He inspired me so much that I can not even describe, and I was just a student then. It was 10 years later that he offered me the position because he knew me very well through my college years. I was moved when I read about his passing away, but then I felt good that a great man had personally known me and that I had an opportunity to serve under his direction (him being the Principal and later the Vice Chancellor). I hope we still have the people who measure up to the stature of Dr.D.D.Pant, Dr.S.S Khanna (my mentor), Dr.O.N.Perti (Chemistry), Dr.R.K. Mehrotra (Botany), Dr.Gunju (Proctor). I am sure the youth of Naini Tal is still as motivated as before and that the region is progressing. Read about the aerators being installed in the lake, something that should have been done in 1960s and 70s but as long as the lake survives the human and/or environmental onslaught, it is good news. The place must have changed significantly in the 14 years that I have been out here.......!
Saturday, November 8, 2008
डी डी पन्त जी----- प्रोफ़ेसर तेजेंद्र गिल की नज़र से
आज ईमेल से प्रोफ़ेसर तेजेंद्र गिल ने, कुमाऊ विश्वविधालय के पूर्व कुलपति प्रोफसर डी डी पन्त जी को याद करते हुए ये ईमेल मुझे भेजी है। प्रोफसर गिल ने जिस किसी को भी एक बार पढाया होगा, उसे हमेशा उनकी याद रहेगी। शायद कई हजारो में से कोई एक ऐसा टीचर किसी औसत दर्जे के विश्वविधालय में मिलेगा। बहुत दिन हुए, नैनीताल छोड कर आए हुए पर अपने विधार्थी जीवन की जो अच्छी यादे है, निसंदेह जन्तुविज्ञान विभाग के प्रोफेस्सर गिल के लेक्चर और पढाने का उनका ज़ज्बा भी उसमे शामिल है।---------नैनीताली
पन्त जी के लिए----------
प्रोफ़ेसर गिल
I was doing the google search for the people I knew while I was at Naini Tal (1954 - 1995), and read about the sad demise of Dr.D.D. Pant. Dr.Pant knew me personally when I was a student in B.Sc. (1965) and M.Sc. (Zoology, 1967) at Thakur Deb Singh Bisht Government College, Naini Tal. In 1970, while I was finishing up my Ph.D. under Dr.S.S. Khanna, one fine morning these two most respectable figures at the time, walked into the lab, and Dr.Pant asked me a question (all in Hindi)........."Tejendra Singh, do you still want to join the army or you want to teach here....". My immediate response was "yes, Sir, I would like to teach as lecturer here". And that was the beginning of my teaching career. I had the necessary credentials and I was a turbaned Sikh. The point I am trying to make is that Dr.Pant offered me the job because in his opinion that was in the best interest of the institution he was heading at the time. He was a visionary, a role model, and a top scientist. His motivation to upgrade the DSB College to the status of a state university was so strong that despite all the hurdles, he succeeded in his mission. The Kumaun University, Naini Tal, is a testimony to the strong will power and tireless efforts of a man who was determined to provide better education and career opportunities to the people of Kumaon. He was an inspiration to thousands of young men and women of the region, and I wish his ideals are upheld and passed down the generations. Not many people make a difference in the lives of the common man but Dr.Pant stood out and spent all his life making significant contributions to the science and socio-economic growth, which have been well recognized. I pay my homage to this great man who showed me, and thousands others the path to a successful career and a more meaningful life. A befitting memorial to Dr.D.D. Pant would be the most appropriate way for the people of Kumaon to express their appreciation for his contributions. (Dr.Tejendra Singh Gill, University of Houston, Houston, Texas, USA)
Saturday, July 12, 2008
मंगलेश डबराल की कविता- अगले दिन
अगले दिन
पहले उसकी सिहरती हुयी पीठ देखी
फ़िर दिखा चेहरा
पीठ जैसा ही निर्विर्कार
कितने सारे चहरे लांघकर आया हुआ
वह चेहरा जिस पर दो आँखे थी
सिर्फ़ देखती हुयी, कुछ न चाहती हुयी।
वह अकेली थी उस रात
वह कही जा रही थी अपना बचपन छोड़ कर
कितने सारे लोगो द्वारा आतंकित
कितने सारे लोगो द्वारा सम्मोहित
कितने सारे लोगो की तनी हुयी आँखों के नीचे
कितनी झुकी है उसकी आँखे
की वह देख नही पाती अपनी और आती मृत्यू
हर चीज़ के आख़िरी सिरे तक
वे उसके पीछे जायेंगे
जहा से एक सुरंग शुरू होती है
सुरंग मे कई पदों मे से एक पेड़ तले
बैठा होता है उसका परिवार
माँ-बाप, भाई बहन
और पोटलिया जिनमे भविष्य बंद है
सापों की तरह
वों सारा कुछ सोच कर रखेंगे
पहले से दया, पहले से प्रेम
पहले से तैयार थरथराते हाथ
वे उसे पा लेंगे बिना परिवार के
बिना बचपन के, बिना भविष्य के
और खींच ले जायेंगे एक जगह
कोई नही जान पायेगा किस जगह
डराते मंत्रमुग्ध करते
अगले दिन उसके भीतर
मिलेंगे कितने झडे पत्ते
अगले दिन मिलेगी खुरो की छाप
अगले दिन अपनी देह लगेगी बेकार
आत्मा हो जायेगी असमथ
कितने कीचड कितने खून से भरी
रात होगी उसके भीतर अगले दिन
Saturday, July 5, 2008
Thursday, June 26, 2008
लोहाघाट से अखिलेश दुबे की दो कवितायें
मुनिया
शीत से फटे लाल गालों,
उलझे बालों और अपने बहुत कम अंतर वाले भाई -बहनों को संभालती मुनिया
स्कूल की घंटी की आवाज सुनकर मुश्किल से अपने आंसू रोक पाती है
घर के पास से गुजरती सर्पीली पगडंडियों से
अपनी पीठ पर स्कूल का बस्ता लादे जाते गांव के हमउम्र बच्चों को देखकर
दूर आसमान में खो जाती है
उसे रंग-बिरंगी किताबें और शरारत करते छोटे-छोटे बच्चों के सपने आते हैं
सपनों में वो फूल-सी हलकी
आकाश नापती अपनी दुश्वारियों से बेखबर घर से बहुत दूर उड़ आती है
तभी उसकी पैदाइश को कोसती उसकी मां उसके सिरहाने नजर आती है
मुनिया अपनी जिम्मेदारियों का बोझ लिए उठ खड़ी होती है
बचपन के निशान ढूंढती !
नन्दू
नन्दू को बार-बार अपनी पाठशाला और मास्टर के सपने आते हैं
वह नींद में चौंकता और कराहता है
मास्टर अपनी घनी मूंछ में चुटकी भर हंसता है
और नन्दू उस हंसी के सामने अपनी समूची निरीहता के साथ
जिबह होते बकरे की तरह अवाक प्रस्तुत हो जाता है
नन्दू जब भी अपनी पाठशाला की बिखरी छवि को सहेजना चाहता है
कुछ टूटता है उसके अंदर
और उसकी आवाज कांपने लगती है
नींद में भी नन्दू खामोश हो जाता है !
Monday, June 23, 2008
अधेड़ नैनीताल उधेड़बुन - वीरेन डंगवाल
आंखों पर पानी
क्युबिकों फीट पानी का ठंडा दबाव सहते
देखता है एक अधेड़ तैराक
कई अनूठे दृश्य
महसूस करता फेफडों का सुशीतल पानी निगलना
२
एक दमकती हुयी डबलरोटी की ओट में देखी मैंने
युवा शरारत की लालसा
संजोये हुए रुपहले केशों में गौरैयों ने डाल दिए थे
तिनके
उतरता बसंत
उनके घर बसाने का समय है
काफ़ी पी जाए
सुना जाए संगीत
देखा जाए
अपने ऊपर ढहते अपने घर को
बैठकर पुरानी आरामकुर्सी पर
३
होठों में खुश्की
झरना किसी शानदार द्वार से
रंग की एक कत्थई पतली परत का
यह भी प्रेम है शायद
इस सबको देख पाना
४
अगर तुम्हारा कुत्ता तुम्हारा कहना मानता हो
तभी मुझे अपने घर बुलाना
अगर तुम्हारी माँ ऊंचा सुनती हो
तभी मुझे अपने घर बुलाना
अगर तुम्हारा मन अठखेलियाँ करता हो
तभी मुझे अपने घर बुलाना
५
घुटने दुखते हैं चढान में
मन लेकिन काकड़ - हिरन - हृष्ट पुष्ट नीलगाय
झकझोर मीठी जलेबी खायी तो तुम्हें याद किया
पतलून की पेटी पर चाशनी पोंछी तो तुम्हें याद किया
दूर से मोटर रोड देखी तो तुम्हें याद किया
और तो और
तुम्हें देखा तो भी तुम्हें याद किया
Thursday, June 19, 2008
नैनीताल
एक आदमी है
जो मन ही मन बेतरह बड़बड़ाता है
अपनी ही किसी धुन में
बेआवाज़
गुनमुन-गुनमुन न जाने क्या-क्या
बोलता जाता है
मुझे मालूम है
अपने ही अन्दर के पानी में खड़ा
बेशुमार लोगों
और मकानों से घिरा वह
अपनी विपित्तयों का इतिहास
लिख रहा है
और भीड़ भरे रास्तों से
एक नामालूम भाषा में जूझता
बहुत बड़ा
बहुत खूबसूरत दिख रहा है।
Tuesday, June 17, 2008
Homage to Late Professor D. D. Pant
Professor Devi Datt Pant (1918-2008)
by Prof. Prem Ballabh Bisht, IIT Madras
(this is reproduction of the article originally published in the webpage of photophysics lab at IIT, Madras).
I visited Professor Pant on 18th May 2008, the next morning I reached Haldwani from Chennai on a private trip to North India. He was lying on his bed after the morning breakfast. His son woke him up and told that Bisht has come. I was a little uncomfortable when he did not recognize me on his first glance. Then he said * Oh, Dekho..*. We then started *talking* a little bit.
He was very weak and lying on his right side. He was trying to listen to me with his hand curling around his left ear. He was responding in short but with the same vigour as he would about 20 years back in the laboratory.
*Naini Tal lab*, the Only Thing He Was Interested in:
I told him that I had a recent communication with the Naini Tal laboratory people. I told him that I was going to give a lecture in the lab/department there next week. He was happy only to know these details. When his son came to this room, he asked me: *how are you going to Naini Tal?, by Taxi?* I said yes, Then promptly he said: *Ham bhi challenge* (I will also join you).
This was the only topic he was interested in. I also told him that I would like to meet the Vice-chancellor (VC) for some sort of help to the lab. The problem was that the only teacher-scientist who is now affiliated with the lab has been given the Bhagirah task of controlling the examinations of the whole university. I wanted to meet the VC to release him from this work so that he could contribute to the lab. Prof. Pant asked me- *Do you know him (VC)?* Later I felt surprised that he could indicate that unless I know the VC, there will be nothing.
We also talked about that I was helping the laboratory from Chennai by giving a bit of guidance and helping the person-in-charge by boosting his morale. The only problem is unless the university releases him from the *examination work*, nothing can happen. I told Prof Pant that the person is rebuilding the lab nicely and he will be back to the lab with more time in a short-while. He said, * Right now he is young (that*s why university needs him) , but soon it will become *late* (for him)! (later when I went to Naini Tal for the lecture, I could not meet the VC, but did meet the person during and after the lecture and communicated our discussion completely). During the discussion he asked me * Is it Sunday today?*, I said *yes*. I took my tea (prepared by his helper). I held his hands, gave a pat and massage on his forehead. I saw the wet eyes. [At that moment, we both could communicate to each other and probably said a good-bye]. At a later moment, when I was sitting with his family for a few minutes, I saw that he walked from his bed room and joined us (sat on a chair in the living room). Actually on every Sunday, his former student H. D. Bist visits him, who came with his wife when I was about to leave.
Uttarakhand Kranti Dal, a Manuscript Returned by the Reviewer -Still in the Hands of *to be Well-Trained* Students:
I knew Dr. D. D. Pant when I was a child in Champawat in a village(Darah). I knew him because he stood in an election from Uttarakhand Kranti Dal (UKD) with *Ugta Suraj* (Rising Sun) as his election symbol. I had convinced my mother (and a few other neighbouring Aunts) to vote for him (although my father was a Congress supporter). Later after my M.Sc. when I joined the lab for the Ph.D., I did not believe that this person fought a national election? One of my seniour colleague Pushpa used to tell us * He lost all the money in the elections and every one has left him now*. Oh, what a pity, UKD is still fighting for its very identity in the fertile land with all the instruments ready, waiting for the spectra and lifetimes to be recorded, which the professor had foreseen almost 3 decades ago. I am sure a student who is professionally trained in this art will make history for the UKD in coming future.
Department of Physics, Samman Pat (Honour Board):
While we were doing B.Sc., one of my class mates (Ravi Purohit) used to comment: * Beta padho, Samman-Pat par naam aayega*. During late eighties Prof. Pant was working in the lab as *Emeritus Professor* for a DST project on a very small fellowship, which was barely sufficient for the monthly expenditure. (For example, a few years later, junior research fellowships were either more or equivalent to his fellowship). In Naini Tal during winter vacations, when the regular teachers can not even prepare their minds (whether they should go to college), one could see Professor Pant walking uphill from Mallital Maszid-side to the college everyday (except Sunday/ holiday) around 9:30-10 AM. After coming to the lab, he used to read popular books, discuss science, society, politics or anything. During those times, he was not well-taken by the department! The department on one hand was proud of his presence, while on the other they envied him and tried to discourage the activities of the lab or by doing every small thing they could (e.g., removing even his photograph from the Principal*s room).They even forgot that D. D. Pant was the head of the same department/college or, the founder vice chancellor of the same university! Facts are facts and they can not be changed. Often while going back from the lab at or after 4:30 PM, he will walk up and find the exit door of the department closed and walk back to the other door and will remark *See they are very efficient in time when it comes to closing the door of the department.*
Gandhian Approach:
In NainiTal College, during 8th and 9th decade of 20th century, as was a popular nationwide trend students unions were being hijacked by the local leaders. The student unions used to make way not to prepare any leadership but to take some contracts or hijack jobs of the university etc. The student community was being misused. Some of us started opposing such trends in the hostel which resulted in some attacks on us. In some cases, the over speeding vehicles near the hostel resulted a Chakka Jam in front of the Brook Hill Hostel by Hostel inmates. These two activities delayed me by an hour or so to reach the lab on these two occasions.When Dr. Pant came to know of the reason of delay, he said *Good, that*s the way to oppose any undemocratic thing*. It was such a friendly approach. Over the years, actually I had developed a very good friendship with Dr. Pant. Not everyone will know that Dr. Pant used to *keep the resignation letter in his pocket* while he was the *Director of education* or the VC of the university.While discussing science, he often used to comment on our approach of supporting our views unnecessary by saying *Look, it is not winning a case in the court by a lawyer, it is the truth you should look for*. His approach of tackling the scientific problems still motivates us.
An International Figure:
Prof. Pant worked with Herzberg and Michel Kasha and visited several countries several times. When Kasha came to know of the work published by Pant in Indian Journals, he said *You are very Patriotic! You could have published all this in American Journals for the large citations.*DD Pant was a friendly figure. He made very good friendship with everyone he came in contact with professionally or personally in India or abroad. Kasha used to send New Year Greeting card-cum letter every year. Late Professor D. P. Khandelwal was in his good books for the *management skills*. His work with Khandelwal was extensively cited in a book of B. Belford and B. Rabinowitch (1965).
Farewell to the Stalwart of India:
When I returned from my home town (after working at a primary school for the newly opened science center), although a bit busy with many things and family problems, I wanted to meet him again, but was not able to prepare enough courage, as I had come to know that he is not doing very well. I had left Haldwani on 10th June. I was in Delhi on 11th May on my way back to Chennai, when Dr. Sanjay Pant called from Lucknow that he is no more. I had lost one of my great friends, a teacher, a fatherly figure.
Prem B. Bisht
IIT Madras, 14 June 2008.
A Brief Biodata of Prof. Debi Datt Pant
[Slightly modified version of the one published in 2006, Proceedings of Seminar at Naini Tal]
Born: 1918, Village : Deorari (Pithoragarh) U.P. (now Uttarakhand)
Died: 2008, June 11 (Haldwani, Uttarakhand).
Academic Qualification
M.Sc. Physics, Benares Hindu University, Varanasi in 1942 (First batch of Spectroscopy student of Prof. R.K. Asundi).
D.Sc. Banaras Hindu University, Varanasi 1949.
Research
Worked with Prof. C.V. Raman at Indian Institute of Science, Bangalore (1942-44) on Photoconductivity of Diamond and the luminescence spectra of Uranyl salts.
Worked at N.R.C., Ottawa with Herzberg, a Nobel Laureate, 1960.
Fulbright Scholar (1960-61) worked in Prof. M. Kasha*s Lab.
Established research laboratory at D.S.B. Degree College (Nainital). The initial work on Uranyl salts had been extensively quoted in *Spectroscopy and Photochemistry of Uranyl Compounds* by B. Belford and B. Rabinowitch (1965). Various aspects of luminescence of Inorganic and Organic molecules dopants, etc. using steady state and a locally fabricated life time measurement device upto micro-second range was studied. Interesting D2O effect was found in lifetime and quantum yield. Energy transfer studies were made in rare earth. The research activities in the lab have been extended to the study on photophysics of structurally and biologically important molecules using steady state and time resolved spectroscopy in nano- and pico-second ranges.
About One hundred forty research papers have been published and twenty students have received Ph।D. degree under him.
Awards, Recognition and Academic roles
Awarded fellowship of Sigma Si, USA 1969.
Awarded fellowship of Indian Academy of Sciences Bangalore.
Received Raman Centenary Award.
Asundi Centenary Award.
Also actively involved in several other educational programmes with UGC, U.P. Govt., Govt. of India, Science Education, NCERT, etc.
Selected for USID programme to study Science Education in USA. Participated in International Conference in Columbus, Ohio, Gordon conferences on Spectroscopy, Raman Centenary, CNR Paris (1976), Himalayan Ecology, etc.
Foggety short time visitor Rockyille (1982 & 84) etc.
Employment
Lecturer at Agra College, Agra.
Professor at RBS College, Agra.
Professor at DSB Govt. College, Nainital, Uttaranchal (1952-62).
Principal, DSB Govt. College, Nainital, Uttaranchal (1962-71).
Director of Education, UP 1971-72.
Dean, Faculty of Science, University of Agriculture and Technology, Pantnagar, Uttaranchal (1972-73).
Vice Chancellor, Kumaun University, Nainital (1973-77)। Since 1978 Emeritus Professor, Advisor and Principal Investigator of several sciences research projects.
Contributions of Prof. D. D. Pant
Dr. D.D. Pant was a rare and judicious mix of a physicist, an educationist and a social activist. He was an institution in himself.
He was a student of Nobel laureate, Sir C.V. Raman and had the rare distinction of doing his post-doctoral with him. Dr. D.D. Pant imbibed a scientific temper from the great C.V. Raman and an insatiable quest for truth for which the great scientist was known. Dr.Pant was his favourite student and he profusely expressed his appreciation for him and wanted him to work in the lab of a Nobel laureate, outside India. Dr. D.D. Pant infused with a spirit of nationalism and Gandhian ideology politely refused the offer and opted for a career in teaching and research in Agra College, Agra at a paltry sum of Rs.100 only. Dr. D.D. Pant sacrificed his career and preferred to popularize Physics in a nation which had been shackled by the alien yoke.
Dr. D.D. Pant did not make a compromise with his ideology of popularizing Physics in India. Untouched by brain drain, he stated in a recent interview that *I have no regrets for sacrificing my career and I don*t gloat over what I sacrificed; but given an opportunity, again I would follow the same path.*
In 1964, he declined the position of Professor and Head of the Physics Department of Rajasthan University because research equipment support was not assured to him. In 1972, he resigned from the coveted position of Director of Education, Uttar Pradesh to become Dean of Science and Humanities at Pantnagar University so as to continue his work as a scientist. In 1973 he accepted the founder Vice Chancellorship of Kumaun University for fulfilling his childhood dream of disseminating education to masses in the hills who could not afford education outside the region owing to economics constraints. His motto was :education for those who are residing in fragmented pockets in geographical isolation. It was a result of his total dedication toward research that the Physics Department of D.S.B. Campus, Kumaun University earned an international repute with the most advanced equipments in the frontier field of Time Resolved Spectroscopy and its identification as a national centre in this field. To him also goes the credit as a Vice Chancellor that he invited Professor K.S. Valdiya and Professor J.S. Singh to join Kumaun University both of whom were awarded FNA (Fellow of National Academy of Science) during his tenure as Vice Chancellor.
For a person of his academic achievements several honours were conferred on him and he got the opportunity to work as a Fulbright Scholar (1960-61) with Nobel Laureate Prof. M. Kasha of USA and in Henzberg*s Lab in Ottawa. He was awarded the Raman Centenary Gold Medal and had the rare distinction of being the first scientist to receive the Professor Asundi Centenary Award.
He had been a great teacher, had supervised the research of 20 Ph.D. students, and published 140 research papers in National and International journals. All the Ph.D. scholars from his school of Photo Physics have blossomed into good teachers and scientists and are working in leading institutions, both in India and abroad.
Dr. D.D. Pant was an avid reader and had a voracious appetite to delve into subjects like Ecology, History, Philosophy, Culture and Literature, etc. His communicative and oratorial skills are impeccable and he had a tremendous capacity to simplify any subject and communicate it to the audience in an extremely popular style. His penchant for reading and his analytical skill laced with outstanding dialogue delivery and language had made him a very popular teacher and a thinker.
Dr. D.D. Pant was a self-made man, with a very humble background. He got his early education in a village school of Pithoragarh district and had to negotiate a distance of 50 km to the road head from his village. This is why he had a deep insight into rural problems of the Himalayan region. The ruggedness of the terrain, its inaccessibility and lop-sided development by the U.P. Govt. in Uttaranchal, his anguish and concern for the region inspired him to institute the Uttarakhand Krantidal and mooted the idea of a separate hill state.
Dr. D. D. Pant became a lifetime legend as founder Vice Chancellor of Kumaun University. The quality which distinguishes Prof. Pant from rest of the Indian scientists is that he combined undertaking research of highest quality with his commitment to social work that is reflected in his widespread popularity among the masses of the rural hills. His awe inspiring popularity had wafted through the masses and made him a source of inspiration not only for students but also for the village folk. It would not be an exaggeration to state that his humane attitude and sensitivity towards societal problems had made him a folk hero in Uttarakhand.
Friday, June 13, 2008
प्रोफेसर डी. डी. पंत जी को श्रदांजली
पन्त जी को एक साधारण छात्रा की तरह मेने नैनीताल केम्पस मे तीन साल मे कई बार सुना। किसी बड़े मंच पर नही, पर ढेर से छोटे -छोटे कमरों मे, कई तरह के छोटे और बहुत ही छोटे स्तर के प्रोग्रामो मे। कभी "दृष्टिकोण " नाम के स्टडी सर्किल मे , कभी किसी वाद-विवाद प्रतियोगिता के दरमियाँ, कभी हॉस्टल और इंटर-हॉस्टल जैसी छोटी -मोटी पहल के दौरान। किसी भी सकारात्मक पहल के लिए, चाहे वों कितनी ही छोटी क्यों न हो, पन्त जी हमेशा केम्पस के बच्चों के साथ होते थे।
उस जमाने मे पन्त जी रिटायर्ड "प्रोफेसर एमेरिटुस " थे, परन्तु शायद किसी भी दूसरे फुल टाइम प्रोफेस्सर से ज्यादा सक्रिय थे, उनकी उन दिनों की प्रयोगशाला मे भी बेहतरीन काम हुआ, और उसी लैब के नाम से नैनीताल केम्पस की बाहर के एकादमिक सिर्किल मे एक इज्ज़त के साथ पहचान थी। इसका इल्म मुझे नैनीताल छोड़ने के के बाद हुआ, और अब भी उस प्रयोगशाला के जिक्र बिना DSB केम्पस का रेफरेंस अधूरा सा रहता है।
पन्त जी की यादे मेरे मानस मे एक ऐसे अध्यापक की है, जिसने शिक्षा को क्लास रूम से आगे, और पाठ्यक्रम से आगे जा कर देखा, और एक बड़े छात्र समुदाय को जीवन के विभिन्न क्षेत्रो मे आगे बढ़ने का होसला दिया, एक कोहरे और बारिश मे डूबे, रोमानी शहर मे।
- Dr. Sushma Naithani,
Cornell University, Ithaca, New York, USA
Tuesday, June 10, 2008
wild-wild west की कुछ तस्वीरे
Monday, May 12, 2008
Purple Hibiscus
Purple Hibiscus एक युवा नाईज़ीरीया की लेखिका Chimamanda Ngozi Adichie का लघु उपन्यास है।
Enugu, Nigeria, मे ये कहानी शुरू होती है, जिसकी कहानी एक पन्द्रह साल की लड़की के आसपास घूमती है, उसके घर के बंद माहोल, खुले बगीचे के बीच, और एक ऐसे पिता की निगरानी मे जो घर के बाहर लोगो की मदद करने के लिए और राजनीती मे अच्छे दखल के लिए जाना जाता है। वही पिता घर पर कैथोलिक धर्म की मान्यता को लेकर बहुत रूढ़ है और अपने ही परिवार की आज़ादी का दुश्मन, घर पर बहुत बंद माहोल का सृजक। अपनी पत्नी और बच्चों को बुरी तरह से मारपीट से अपने कट्टरपंथी रास्ते का अनुयायी बनाने वाला। ऐसे मे दो किशोरवय के सहमे बच्चे इस कहानी मे दाखिल होते है।
ये कहानी एक राजनीतिक परिदृश्य मे भी है, जो नाईज़ीरीया मे सैनिक शासन के पहले शुरू होती है, और उसके बाद मिलिटरी कू और बाद के सामाजिक -राजनैतिक माहोल मे आगे बढ़ती है। इसी माहोल मे दो किशोर भाईबहन अपने पिता के घर से अपनी मौसी के घर जा कर रहते है। इस घर का खुला माहोल, गर्मजोशी से भरा माहोल, इन दोनों बच्चों के जीवन को नए आयाम देता है।
एक बड़े पटल पर लिखी पारिवारिक कहानी अपने आप मे बचपन, बचपन और किशोरवय के संक्रमण की कहानी
एक कविता की तरह कहती है। और साथ ही ये आज़ादी और आज़ादी के सपने की कहानी भी है, प्यार और नफरत की, नए और पुराने प्रतिमानों की भी। सामाजिक संघर्ष के परिवेश मे एक किशोर मन के आत्म संघर्ष की।
एक सेम्पल यहाँ पढे
Monday, April 14, 2008
गोविन्द बल्लभ पंत : एक विस्मृत साहित्यकार की स्मृति
२९ जुलाई १८९८ में रानीखेत में जन्मे गोविन्द बल्लभ पंत ने अठारह-उन्नीस उम्र से काव्य रचना आरंभ की. १९१७ में उनके पहले काव्य संग्रह 'आरती' का प्रकाशन हुआ. १९२० में वाराणसी में कालेज की शिक्षा बीच में ही छोड़कर स्वाधीनता समर के सिपाही बन गए और बाबू शिवप्रसाद गुप्त के 'ज्ञानमंडल' से संबद्ध हो गए.इसके बाद मेरठ की 'व्याकुल भारत नाटक कंपनी' में एक वर्ष तक नाटककार के रूप काम किया फ़िर पहाड लौटकर मिशन स्कूल रानीखेत ( आज का 'रानीखेत इंटर कालेज') और प्रेम विद्यालय ,ताड़ीखेत में अध्यापन कार्य किया. पंत जी अध्यापन,अभिनय,लेखन और थिएटर-सिनेमा की दुनिया के बीच अपने मुकाम को तलाशते रहे. उन्होंने पत्रकार के रूप मे 'हिमालय', 'सुधा',' धर्मयुग', 'नवनीत' आदि पत्रिकाओं के संपादकीय विभाग में कार्य किया.महादेवी वर्मा द्वारा ताकुला (नैनीताल) में स्थापित 'उत्तरायण'संस्था में भी सहयोग किया.
उनकी ख्याति मुख्यत: नाटककार और कथाकार के रूप में रही है। उनके नाटकों में 'कंजूस की खोपडी', 'राजमुकुट', 'वरमाला', 'अंत:पुर का छिद्र', 'अंगूर की बेटी', 'सुहाग बिन्दी', 'ययाति' आदि प्रमुख हैं. उन्होंने कई नाटक कंपनियों -व्याकुल भारत, राम विजय, न्यू एल्फ्रेड, पृथ्वी थिएटर्स आदि के लिए नाटक लिखे और अभिनय भी किया. ऐसे नाटकों में 'अहंकार', 'प्रेमयोगी', 'मातृभूमि', 'द्रौपदी स्वयंवर' प्रमुख हैं. पंत जी ने जीवन और जगत के विविध अनुभवों पर कई उपन्यासों की रचना की है जिनमें 'प्रतिमा', 'मदारी', 'तारिका', 'अमिताभ', 'नूरजहां', 'मुक्ति के बंधन', 'फॉरगेट मी नाट', 'मैत्रेय', 'यामिनी' आदि चर्चित रहे हैं. उनकी अन्य प्रसिद्ध रचनाओं में 'विषकन्या' ( एकांकी संग्रह) तथा 'एकादशी' और 'प्रदीप' (दोनों कहानी संग्रह) शामिल हैं. उन्होंने लगभग ७५ वर्षों तक लेखन किया लेकिन १९६० के बाद से वे एक रचनाकार के रूप में चुप ही रहे. अगर उनकी यह चुप्पी टूटती तो संभवत: पुस्तकों की संख्या की दृष्टि से वे महापंडित राहुल सांकृत्यायन के निकट पहुंच जाते.
मई-जून १९८८ में मैने पहली बार पंत जी को देखा-पहचाना, जबकि काफी लंबे समय से नगर की साहित्यिक-सांस्कृतिक गतिविधियों में सक्रिय रहते हुए भी यह सुनता भर था कि प्रख्यात साहित्यकार गोविन्द बल्लभ पंत मेरे छात्रावास ब्रुकहिल के आसपास ही कहीं रहते हैं लेकिन उनसे मिलने का प्रयास कभी नहीं किया था. पता नहीं वह कौन सी हिचक थी जो रोके रखती थी जबकि अन्य नये-पुराने साहित्यकारों के नैनीताल में होने की खबर मेरे जैसे नौसिखिये कलमघिस्सुओं में जोश भर देती थी और हम उनसे मिलते भी थे. १९८८ की गर्मियों में शमशेर बहादुर सिंह् नैनीताल में थे.इस मौके पर 'पहाड़' (सं०-शेखर पाठक) और 'नैनीताल समाचार'(सं०-राजीव लोचन साह) ने 'एक शाम शमशेर के नाम' काव्य गोष्ठी का आयोजन किया. इतिहास के हमारे गुरु शेखर पाठक जी ने मुझे यह काम सौंपा कि कार्यक्रम की अध्यक्षता के लिये गोविन्द बल्लभ पंत जी से बात हो गई है और मैं उन्हें आयोजन स्थल सी.आर.एस.टी.इंटर कालेज तक लिवा लाऊं.तब मैनें पहली बार जाना कि पंत जी के पुत्र कृषि या ऐसे ही किसी विभाग में बड़े अफसर हैं और पंत जी उन्हीं के साथ मल्लीताल के ओक पार्क में रहते हैं.
खैर, नियत तारीख और समय पर मैं पंत जी के निवास पर पहुंचा। दरवाजा उनकी पुत्रवधु ने खोला ,मैंने अप्ना मंतव्य बताया तो उन्होने बैठने के लिये कहा. मैंने ध्यान दिया एक सुरुचि संपन्न बैठक,सोफे पर बैठा एक वृद्ध व्यक्ति-भूरे रंग की लंबी कमीज और सफेद पायजामा पहने. ऐसा लगा इनको कहीं देखा है॥ प्रणाम किया तो उन्होंने हाथ जोड़कर उत्तर दिया. वे साहित्यकार गोविन्द बल्लभ पंत थे. 'ऐसा क्या खास है इस मनुष्य में...'मैंने गौर करना चाहा. अरे! इन्हें तो अक्सर अपने छात्रावास के सामने वाली सड़क पर घूमते-टहलते देखा है. क़्या यह वही मनुष्य है जो अपने युग का चमकता हुआ सितारा था;अपने जमाने का मशहूर कथाकार और नाटककार. क़्या यह वही मनुष्य है जो पं.राधेश्याम कथावाचक और पृथ्वीराज कपूर जैसी महान हस्तियों के साथ काम कर चुका है . इतना ही नहीं असहयोग आंदोलन का दमदार सिपाही और एक लोकप्रिय शिक्षक भी रहा है.....मुझे शर्म आई कि तब तक एकाध छिटपुट कहानियों के अतिरिक्त मैंने उनकी कोई भी किताब नहीं पढी थी,यहां तक कि बी.ए.के कोर्स में उनका नाटक 'पन्ना' शामिल था परंतु हमने उसका विकल्प 'लहरों के राजहंस' (मोहन राकेश) ही पढा था.
पंत जी कार्यक्रम में आए।शायद कई दशकों बाद उनकी और शमशेर जी की यह प्रत्यक्ष मुलाकात थी.शमशेर जी कुछ-कुछ पूछते रहे और पंत जी चु.शमशेर जी ने अपनी दो-तीन कविताओं का पाठ किया और थक गये.डा.रंजना अरगड़े ने उनकी कुछ कवितायें पढीं, कुछ और लोगों ने भी कविता पाठ किया. त्रिनेत्र जोशी अपने कैमरे से सचल और अचल तस्वीरें उतारते रहे. पंत जी चुप मुस्कुराते रहे. शमशेर जी का भी यही हाल था. हम सबके लिए यह एक साथ एक मंच पर 'दो सितारों के मिलन' का एक ऐसा अद्भुत क्षण था जो दोबारा लौटकर नहीं आने वाला था. कार्यक्रम सफल रहा. अखबारों -पत्रिकाओं मे इसके बारे में कई रपटें छपीं. इसके बाद लगभग दो साल तक मैं प्रायः रोज ही पंत जी को छड़ी थामे सड़क पर टहलते हुये देखता रहा. कभी सामने पड़ जाने पर प्रणाम भी करता और वह कुछ पहचानने की कोशिश करते हुए आगे बढ जाते. मन करता था कि उनके साथ चलूं,ढेर सारी बातें पूछूं,ढेर सारी बातें सुनूं लेकिन वे इतने चुप-चुप रहते थे कि उनके एकांत संगीत की लय में खलल डालने की हिम्मत नहीं होती थी.वक्त गुजरता रहा और मैं पंत जी को दूर से देखते हुए उनके साहित्य के निकट आता रहा.
अंततः एक दिन मेरी पढाई पूरी हुई और सरोवर नगरी नैनीताल से प्रत्यक्ष नाता टूटा।रोजी-रोटी की तलाश में घाट-घाट का पानी पीने लिये निकल जाना वक्त की मांग थी.इस बीच देश-दुनिया में बहुत कुछ बना,बिगड़ा,बदला.इस बीच कई साहित्यकरों क निधन हुआ और पत्र-पत्रिकाओं ,रेडियो- टी.वी.पर उनको खूब याद किया गया.यह जरूरी भी था और जायज भी .लेकिन उस वक्त जब गोविन्द बल्लभ पंत का निधन हुआ था तब उनके स्मरण को लेकर जो ठंडापन व्याप्त हुआ था वह आज तक दिखाई देता है-अनुभव होता है.ऐसा ठंडापन क्या यह प्रदर्शित-प्रकट नहीं करता है कि आज की दुनिया में आप तभी तक महान हैं जब तक कि मंच पर हैं और मुखर हैं.
(गोविन्द बल्लभ पंत पर इस संवाद/पोस्ट को तैयार करने में वार्षिक पत्रिका 'पहाड़' के अंक-१० में छपे डा० नीरजा टंडन के स्मृति-लेख से मदद ली गई है.पंत जी के निधन के बाद पाक्षिक 'नैनीताल समाचार'में उन पर आलेख और कवीन्द्र शेखर उप्रेती द्वारा लिया गया साक्षात्कार प्रकाशित हुआ था .वह फिलहाल मेरे संग्रह में मिल नहीं पा रहा है.मिलते ही प्रस्तुत करने का प्रयास रहेगा.)
Thursday, April 10, 2008
नैनीताल में दीवाली / वीरेन डंगवाल
ताल के ह्रदय बले
दीप के प्रतिबिम्ब अतिशीतल
जैसे भाषा में दिपते हैं अर्थ और अभिप्राय और आशय
जैसे राग का मोह
तड़ तडाक तड़ पड़ तड़ तिनक भूम
छूटती है लड़ी एक सामने पहाड़ पर
बच्चों का सुखद शोर
फिंकती हुई चिनगियाँ
बगल के घर की नवेली बहू को
माँ से छिपकर फूलझड़ी थमाता उसका पति
जो छुट्टी पर घर आया है बौडर से
Saturday, April 5, 2008
प्रवासी पहाडी होली
Friday, March 21, 2008
बने रहें नैनीताली , बना रहे नैनीताल !
सो आज,अभी ,इसी वक्त।
दरअसल, नैनीताल जैसी बला की खूबसूरत जगह में दस बरस बिताने के बाद हर साल होली पर उसकी याद तो आती है, इसके कई कारण हैं -कुछ व्यक्तिगत ,कुछ सामाजिक, कुछ नितांत गोपनीय.आज बहुत दूर से एक भुत पुराने साथी का फोन आया.मैंने वह आवाज लगभग पंद्रह साल के बाद सुनी.नमस्ते ,दुआ सलाम के बाद सीधा सवाल या प्रस्ताव- 'नैनीताल चलें'.यह जानते हुए भी कि हम एक-दूसरे से हजारॊं किलोमीटर दूर से बात कर रहे हैं ,फ़िर भी...
-क्यों?
-क्यॊं,क्या .नैनीताल जाने की भी कोई वजह होती है क्या?
वाकई, सवाल बहुत गंभीर था । नैनीताल जाने की भी कोई वजह होती है क्या? निरुद्देश्यता ही नैनीताल की धुरी है.आज भी आप वहां झील के किनारे माल पर बरसों से निरुद्देश्य घूमते लोगों की एक प्रजाति के दर्शन कर सकते हैं. जिन जगहों- लोगों के बीच आपने एक लंबा वक्त बिताया हो .जहां आपका निर्माण हुआ हो और साथ ही जहां आप बर्बाद भी हुए हों-कुछ हालात-ए-हाजरा के कारण, कुछ दूसरों के कारण,कुछ अपनी आदतॊं के कारण और कुछ जानबूझकर की गई बेवकूफ़ियों के कारण, तो भला ऐसी जगह को कैसे भुलाया जा सकता है?
काम-धाम,रोजी-रोटी,लिखत-पढत,यायावरी-आवारगी आदि-इत्यादि के कारण देश-दुनिया में बिखरे तमाम नैनीतालियॊं को आज होली के मौके पर याद करना अच्छा लग रहा है.वास्तव में इस ब्लाग का निर्माण ही यह सोचकर किया गया था कि नैनीताल से किसी भी रूप में संबद्ध रहे तमाम लोग नराई को सिर्फ़ अतीत के च्युंगम की तरह चुभलायें ही नहीं बल्कि वर्तमान और भविष्य के पथ पर चलते-भागते-उठते-गिरते त्निक देर के लिये सुस्तायें,काम भर आक्सीजन पियें और फिर चलें.मैं स्वयं को दोषी मान रहा हूं कि इसके लिये नियमित लिख नहीं पा रहा हूं.कोशिश रहेगी कि आगे से ऐसा न हो.यह अनुरोध भी है और लोग भी इस पथ के साथी बनें.
हे बहन, हे भाई!
आज कोई गंभीर बात नहीं.आज हॊली है-हो-हो-ली-ली
नराई
सभी नैनीतालियों को होली की बधाई !
जरा-सा रंग- चुटकी भर गुलाल
बने रहें नैनीताली , बना रहे नैनीताल !
Sunday, February 10, 2008
कहीं पास जब धुन बजे
लेकिन एक चीज ऐसी भी है जो हर वक्त नसीब नही, चांस की बात है। किसी किसी को ही ये दिखायी और सुनायी देता है। कल्पना कीजिये ताल के किनारे मल्लीताल की रोड की किसी बैंच पर आप बैठे हों, साथ में खुबसूरत प्रकृति के नजारे का आनंद ले रहे हो और फिर अचानक कान में हल्के हल्के कोई धुन सुनायी देने लगे, क्या शमा होगा वो भी। धीरे धीरे धुन तेज होती जाये और फिर सामने से रंग बिरंगे कपड़ों में वो धुन बजाते गुजरे कुछ लोकल छोलिया नृतक या कोई लोकल बरात या कोई देवता की डोली। ये नजारा हर वक्त देखने को नही मिलता लेकिन उन छोलिया नृतकों की माल रोड पर जाते और मधुर धुन बजाते एक झलक आप यहाँ जब चाहे आकर देख सकते हैं।
Monday, February 4, 2008
Cornell Community gets glimpse of U’khandi life
http://www.garhwalpost.com/archivesdetailold.aspx?id=294&nt=Feature&tbl=Left
The three legends of Uttarakhand, historian Shekhar Pathak, Poet Girish Tiwari “Girda” and the most famous folk-singer of all time, Narendra Singh Negi, visited upstate New York and presented the story of Uttarakhand Himalayas to the Cornell community on their recent visit to the US. This event was organized by Dr Sushma Naithani and hosted by Cornell University South Asia Program under the special summer seminar series. The open mindedness, and efforts of William Phelan from South Asia Program and advertising by ASHA Cornell, made this event possible at very short notice.This one and half hour presentation was a summary of the Askot-Arakot study tour conducted in 2004 by PAHAR (People's Association for Himalaya Area Research), an NGO founded by Shekhar Pathak.The Askot-Arakot expedition was first attempted in 1974 and then repeated each decade to understand environmental and social changes in rural Uttarakhand, as well as to document oral history/folklores of the region.
The lecture began with picturesque slides accompanied by an Uttarakhandi song by “Girda” describing the geography and spirituality associated with the region and his deep-rooted desire for development of Uttarakhand.Shekhar Pathak brilliantly captured all aspects of this beautiful Himalayan region and the people who inhabit it. He discussed continued exploitation of natural resources of this region since the colonial era and their impact on Himalayan environment and consequences for global environment. He also pointed out the lack of vision and interest in the political establishment to direct technological innovations and adaptations for the support of the way of life in the hills. The underdevelopment, poor resource management, lack of opportunities and civil amenities have led to an exodus of its people, specially the men folk to the plains of India. The women, children and elders left behind struggle and cope everyday, in the rough terrain of the Himalayas with primitive means in the 21st century.
This story of Uttarakhand depicts a common destiny of people living in similar geography in the Indian subcontinents and probably elsewhere.This three fold disaster; 1) Fragility of Himalayas due to exploitation of natural resources,2) Underdevelopment, lack of technology, opportunities, amenities, in hills, and 3)Migration of hill population are interrelated issues and demand alternatives. The lecture suggested need for sustainable development of the region by integrating judicious utilisation of natural resources, creation of opportunities for local populations by adapting modern technology, tools and innovative agricultural practices and building infrastructure. He also recognised the contribution of various individuals and groups working for betterment of the region and the socio-political struggle of the people which led to the formation of Uttarakhand as a new state in India. The existence of the Himalayas, one of the greatest heritages of mankind, very much depends on the survival and well being of its inhabitants who love this land, protect it from the greed of capitalist interests and have had long discourse with it. The lecture was ended with a song of hope by Narendra Singh Negi, later joined by Girda and Shekhar Pathak asking for intervention by civil society in policy making and implementation for building a better Uttarakhand.
It was not possible to categorise this lecture under a narrow discipline and likewise audiences were from fields as diverse as physics, bioinformatics, biotechnology, plant biology, anthropology, history, English, etc., and came from various parts of the globe. The lecture was followed by an informal potluck dinner and gave an opportunity to friends coming from distinct disciplines and geographical regions to share their views. Among these was John Leavitt, a professor from Université de Montréal, who came all the way from Canada to meet his old friend Shekhar Pathak.John remembered his days in Mukteswar and Nainital with fondness. Dr. Pankaj Jaiswal, curator of Gramene database, Dr Sanjay Gami, a soil scientist from Nepal, Basit a physicist and his wife Kiran from Pakistan, Dr JK Ladda, a soil scientist from IRRI, Usha Ladda and Dr Ajay Garg were among the guests. Apart from adults, children including Rohan, Aroonim, Awaish, and Sharun also enjoyed the evening.The trio also visited Niagara falls and was overwhelmed to see the gorgeous Ithaca and Cornell campus.
Monday, January 7, 2008
धान की कहानी-2
wild rice red rice
3 कमेंट्स स्वपंदर्शी ब्लोग मे (अभी जारी ......)
चंद्रभूषण said...
गांव में अब भी धान की कई आदिम किस्में मौजूद हैं, हालांकि उनपर विलोप का खतरा मंडरा भी रहा है। एक है तिन्ना, जिसे हरा ही काटकर हाथियों को खिलाया जाता है। यह पूरी तरह घास है और इससे चावल निकलने की नौबत ही नहीं आती। दूसरा है तिन्नी, जो ताल के इलाकों में बिना जोते बोए अपने आप उगता है और बहुत पतले, हल्के, पौष्टिक पदार्थों से रहित चावल इसमें आते हैं। इसका चावल व्रत में खाया जाता है और दुकानों पर व्रत के चावल के नाम से ही बेचा-खरीदा जाता है। भारत का सबसे मीठा, बिना सब्जी या दाल के ही खाया जा सकने वाला पारंपरिक चावल शालि नाम के धान से निकलता है। यह भी ताल में उगने वाला धान है, लेकिन इसकी रोपाई नहीं होती। खड़ी बारिश में बीज फेंक दिए जाते हैं और आम धानों से महीने-डेढ़ महीने बाद इसकी कटाई होती है। नए धानों के सामने यह लाल चावलों वाला धान अब दुर्लभ हो चुका है, लेकिन इसका पौष्टिक मूल्य काफी ज्यादा है। हवन में शाकल्य बनाने के लिए इसी के उपयोग का प्रावधान है, जिससे लगता है कि वैदिक काल में जौ के अलावा सबसे ज्यादा प्रयुक्त होने वाला अनाज यही था।
January 7, 2008 2:12 AM
Pankaj said...
We will have to look at these varieties that you mention. It's possible, that it may not belong to the Genus 'Oryza'. The rice we eat especially in India belongs to subspecies Oryza sativa subsp indica, that often produces long grain fragrant rice, compared to the subspecies Oryza sativa subsp japonica, that is known to produce small non-fragrant sticky rice. It is grown primarily from Japan to SE-Asia. Similar to your description of rice varieties, the great lakes region of America also grows the so called 'wild rice' [http://en.wikipedia.org/wiki/Wild_rice] which belongs to the genus 'Zizania'. It is not considered a true rice. There are other species of rice as well that are commonly called 'wild rice' since many of them were not domesticated and grow as wild grasses. However, both Oryza and Zizania belong to the same tribe 'Oryzeae'. Zizania was extensively used by Native Americans and was grown either naturally in the shores of the lakes. With the recent advances and demands in the exotic food industry now this type of rice is grown on a commercial scale. Though everyone expects that the Basmati belongs to the 'indica' subspecies, some recent genetic and genotyping studies suggest that. it is not the case and it evolved separately somewehere in the region of Uttarakhand to North of Burma as a result of a separate domestication event.
January 7, 2008 10:13 AM
Mired Mirage said...
अच्छी जानकारी देने के लिए धन्यवाद । परन्तु तरह तरह के अन्न की प्रजातियों को बनाए रखना लाभकर होगा ।घुघूती बासूती
January 7, 2008 2:42 PM